हवा और दरवाजों में बहस होती रही,
दीवारें सुनती रहीं।
धूप चुपचाप एक कुरसी पर बैठी
किरणों के ऊन का स्वेटर बुनती रही।
सहसा किसी बात पर बिगडक़र
हवा ने दरवाजे को तड़ से
एक थप्पड़ जड़ दिया !
खिड़कियां गरज उठीं,
अ$खबार उठकर खड़ा हो गया,
किताबेें मुंह बाये देखती रहीं,
पानी से भरी सुराही फर्श पर टूट पड़ी,
मेज़ के हाथ से $कलम छूट पड़ी।
धूप उठी और बिना कुछ कहे
कमरे से बाहर चली गई।
शाम को लौटी तो देखा
एक कुहराम के बाद घर में $खामोशी थी।
अंगड़ाई लेकर पलंग पर पड़ गई,
पड़े-पड़े कुछ सोचती रही,
सोचते-सोचते न जाने कब सो गई,
आंख खुली तो देखा सुबह हो गई।
-कुंवर नारायण
कविता संग्रह मैं कहीं और भी होता हूं से साभार