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‘इतनी किताबों में कोई मेरा ही अटपट काम पढ़ने के लिए क्यों चुने इसके लिए मैं कोई दलील नहीं पाती’

हाल ही में अपने उपन्यास 'किंतसुगी' के लिए 'सुशीला देवी पुरस्कार' से सम्मानित की गईं लेखिका अनुकृति उपाध्याय से बातचीत

16 फ़रवरी, 2022 07:36 PM
अनुकृति उपाध्याय।

प्रदीपिका सारस्वत

अनुकृति उपाध्याय हिंदी और अंग्रेज़ी के साहित्यिक गल्प की दुनिया का एक नया लेकिन तेजी से अपनी जगह बनाता हुआ नाम हैं. बीते कुछ सालों में ही उनकी पांच किताबें पाठकों तक पहुंच चुकी हैं. इसमें कहानी संग्रह ‘जापानी सराय’ और उपन्यासिका ‘नीना आंटी’ और तीन उपन्यास ‘दौरा’, ‘भौंरी’, और ‘किंतसुगी’ शामिल हैं. उपाध्याय के लिखे उपन्यास जहां अंग्रेज़ी में थे वहीं उपन्यासिका और कहानी संग्रह हिंदी में प्रकाशित हुए हैं. हाल ही में इस द्विभाषी लेखिका को उनके उपन्यास ‘किंतसुगी’ के लिए 2021 का ‘सुशीला देवी पुरस्कार’ दिया गया है.

उनका एक परिचय यह भी हो सकता है कि साहित्य, प्रबंधन और विधि में डिग्रियां अर्जित करने और देश-विदेश के वित्तजगत में काम करने के बाद अनुकृति उपाध्याय वह ढूंढने में रत हैं जिसका अस्तित्व अनुमानित है, प्रमाण-पुष्ट भले न हो. बीते दिनों सत्याग्रह के लिए प्रदीपिका सारस्वत ने उनसे लेखन और पठन के इर्द-गिर्द बातचीत की. इस दौरान उनके बारे में यह पता चला कि अनुकृति आज के समय में भी बोलचाल के लिए शास्त्रीय हिंदी का इस्तेमाल करने वाले कुछ चुनिंदा साहित्यकारों में से एक हैं. इसी बातचीत के कुछ अंश:

प्रदीपिका: सबसे पहले तो बहुत शुभकामनाएं इस प्रतिष्ठित पुरस्कार के लिए, अनुकृति. टूटे हुए पात्रों को जोड़ने की जापानी कला किंतसुगी आपके माध्यम से एक किताब का आकार लेती है, यह अपने आप में काफी काव्यात्मक है. पाठकों को इस यात्रा के बारे में बताएं. हमने जापानी सराय में आपकी कहानियां पढ़ीं, उसके बाद दौरा और भौंरी में आप हमें रेगिस्तान तक लेकर गईं, उसके बाद नीना आंटी और अब किंतसुगी. जापान और रेगिस्तान, फिर हिंदी और अंग्रेज़ी के बीच फैले अपने रचना संसार को आप कैसे देखती हैं? दो भाषाओं और संस्कृतियों में लेखिका और उसके पात्रों को कहां पाती हैं?

अनुकृति: यूं तो कैसे कहा जा सकता है कि कहानी कहां से आई, कैसे गढ़ी गई, किन राहों से चली। मिर्ज़ा ग़ालिब कह ही गए हैं – आते हैं ग़ैब से ये मज़ामीं खय़ाल में. फिर भी, मैंने किंतसुगी लिखना जापान में प्रारम्भ किया था. सबसे पहले हकोने के सुरम्य पर्वत प्रांतर में धरती के गर्म हृदय से, निकले उच्छवास जैसे गर्म पानी के कुंड में, जापानी रीति से स्नान और फ़ूजीसान की बर्फ़ानी सुंदरता के विरोधाभास के बीच, मीना और यूरी की समलैंगिक प्रेम कथा जन्मी. धीरे-धीरे दूसरे किरदार अवतरित हुए, कहानी जापान से जयपुर और फिर जापान के बीच डोली. जयपुर के आभूषण बाज़ार और कलवंतों का बचपन वाला आकर्षण रूप बदल कर आया. और सबके भीतर प्रेम और समझदारी, जुड़ने, टूटने, रीतने, भरने का सर्वकालिक कलाप चलता रहा.

सवाल के दूसरे हिस्से पर आएं तो मेरे लिए भाषाएं माध्यम हैं, कहानी भी माध्यम है और जीवन भी. लेकिन ये सब किसका माध्यम हैं, यह पहेली सुलझाने के लिए मैं लिखती हूं. शायद कह डालने से कोई सूत्र मिले, उलझनें सुलझ जाएं, मनों में उतर कर उस पार जाया जा सके.

जहां तक संस्कृतियों के वैभिन्य की बात है, यह भिन्नता ही शायद लेखन का उद्वेग पैदा करती है. और इस विभिन्नता की एक परत नीचे, दृष्टि से लुकी समानता भी. माने सब कुछ लेखन की खुदबुद जागता है. मैं बहुत सुलझे-साफ़ उत्तर नहीं दे पा रही हूं न? शायद इसलिए कि मैं अभी अभी भी संधान में लगी हूं, उत्तर मुझे मिले नहीं हैं.

प्रदीपिका: जो इस समय कहा जा सका वही इस समय का उत्तर है शायद, नहीं?

दो अलग भाषाओं में लिखना चुनाव है या बाध्यता? क्या कुछ कहानियां कहने के लिए किसी भाषा विशेष के भाव और शब्द चाहिए ही होते हैं? ये भाषाएं कहानी पर किस तरह का प्रभाव रखती हैं?

अनुकृति: ठीक कहा. इस समय का उत्तर सामयिक है और सच भी. भले ही पूरा न सही.

दो भाषाएं चुनाव हैं, अपनी पहचान और अनुभवों के दो छोरों को थामे रखने के लिए. यों हर भाषा का भाव-विन्यास, शब्दों की लय, अर्थ की सूक्ष्मताएं अलग होती हैं. मुझे लगता है भाषाएं परस्पर सखियां हैं, एक दूसरे को समृद्ध करती हैं. मैं मानना चाहती हूं कि दो भाषाओं में अभिव्यक्ति की मकड़ी-चेष्टाओं से कहीं कुछ समृद्ध हो रहा है, घाल-मेल, ऊभ-चूभ, चिर मंथन से कुछ तो निथर रहा है.

शिल्प, अभिव्यक्ति, प्रयोग, प्रवाह, बारीक़ बातें – सब के लिए दोनों भाषाएं बेहद सक्षम हैं. हालांकि मेरी सीमाएं दोनों में साफ़ हैं फिर भी अंग्रेज़ी में एक तरह की दूरी बना पाना अधिक आसान लगता है और हिंदी में कोमल धंसान के साथ कड़ी-खरी बातें कह पाना.

प्रदीपिका: किंतसुगी को अंग्रेज़ी और नीना आंटी को हिंदी में कहने के पीछे भी कोई कहानी है? लेखन के अलावा, इन दो भाषाओं में छपने और पाठकों के बीच तक पहुंचने के अंतर के बारे में भी बताएं. दोनों भाषाओं में आपकी कई किताबें पाठकों तक पहुंची हैं. क्या लेखन के बाद की प्रक्रिया भी लिखे जाने को प्रभावित करती है? मेरा मतलब है कि क्या प्रकाशन और पाठक तक पहुंचने के अनुभव ने आपकी अगली कहानी या किताब की भाषा के चुनाव को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित किया है?

अनुकृति: इन दो किताबों के लिए दो भाषाएं चुनने की पूछो तो चेतन मन में कोई कारण नहीं है, बाक़ी तो मन के भीतर का भेद कौन जाने. किंतसुगी, नीना आंटी से पहले लिखी गई. हिंदी में कहानियां किंतसुगी के बाद लिखीं. उससे पहले हिंदी में कविताएं लिखती थी जो तब भी कोई नहीं पढ़ता था और अब भी नहीं.

दिलचस्प प्रश्न है. दोनों हो भाषाओं में पाठकों तक पहुंचना मेरे लिए एक अबूझ पहेली ही है. इतनी किताबों में कोई मेरा ही अटपट काम पढऩे के लिए क्यों चुने, इसके लिए मैं कोई दलील नहीं पाती सो किताबों की नाव तैरा कर एक ओर हट जाती हूं.

गल्प की किताबों, और वह भी तथाकथित साहित्यिक गल्प, में भारत में प्रकाशक अधिक राशि ख़र्च नहीं कर पाते, बाज़ार के दबाव उन्हें चाह कर भी ऐसा नहीं करने देते. अंग्रेज़ी प्रकाशक हिंदी के मुक़ाबले थोड़ा अधिक प्रयत्न करते हैं, इंस्टाग्राम और गुडरीड्ज़ जैसे माध्यम अंग्रेज़ी की किताबों को सोशल मीडिया में अधिक स्थान ज़रूर दिलवा पाते हैं. अंग्रेज़ी प्रकाशक पुस्तकों को पुरस्कार आदि के लिए भी स्वयं ही दाख़िल करते हैं. एक बड़ा अंतर अंग्रेज़ी में सम्पादकों का होना है. सुधी सम्पादक न सिर्फ़ लेखन को सुधारते-संवारते हैं, बल्कि और बेहतर लिखने की ऊर्जा और प्रेरणा भी देते हैं. लेखन के नितांत एकाकी और प्रश्नाकुल दौर में यह सम्बल बड़ा है. यह सब देखते हुए अंग्रेज़ी में लिखना बाहरी तौर पर अधिक संतुष्टिकर है लेकिन मन से हिंदी छूटती नहीं है.

जाने तुम्हारे प्रश्न का ठीक से उत्तर दिया भी कि नहीं. अपने लेखन पर प्रश्न मुझे नहीं सूझते सिवाय एक मूलभूत प्रश्न के – मैं क्यों लिखती हे? मुझे क्यों लिखना चाहिए? इसी का उत्तर मैं ढूंढ रही हूं

प्रदीपिका: एक लेखक के तौर पर कोई भी पुरस्कार पाना कितना महत्व रखता है?

अनुकृति: यह एक दिलचस्प प्रश्न है, तुमने निदा फ़ाज़ली साहब का शेर सुना ही होगा – दुनिया जिसे कहते हैं. जादू का खिलौना है, मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है.

पुरस्कार मेरे लिए एक पहेली हैं और एक आश्वासन भी, हर्ष, आश्चर्य, चुनौती और एक तरह के भय का संगम. मेरे अपने लेखन को लेकर अनंत शंकाओं से भरे मन को तो अपने अग्रजों, विज्ञों, समकालीनों द्वारा गंभीरता से पढ़ा जाना ही अपने आप में एक उपलब्धि लगता है.

प्रदीपिका: अगला सवाल पढ़ने के बारे में है. आप किन लेखकों को पढ़ती रही हैं? किन लेखकों ने आपके लेखन को प्रभावित किया है? आखिरी किताब कौन सी पढ़ी?

अनुकृति: मैं बहुत से देशी-विदेशी लेखकों को पढ़ती हूं. कुछ को बार बार. नई-पुरानी किताबों, पुरस्कार सूचियों, सलाहों या किसी योजना के तहत पढऩा मैं सीख नहीं पाई, सो बेढब पढ़ती हूं. बहुत सी कहानियां पढ़ रही हूं, भारतीय और अमरीकी और कुछ यूरोपियन, जर्मनी का युद्धकालिक सामाजिक इतिहास और एक केदारनाथ सिंह की कविताएं फिर से पढ़ रही हूं. और हमेशा की तरह अपना प्रिय जापानी साहित्य फिर फिर पढ़ रही हूं. हाल में योको ओगावा के अनूठे कहानी संग्रह ‘रेवेंज’ पर मंत्रमुग्ध हूं.

प्रदीपिका: दुनिया के डिजिटल, छोटे और बेसब्र होते जाने के इस दौर में लिखे और पढ़े जा रहे हिंदी गल्प साहित्य पर आपकी टिप्पणी? कुछ सपने, कोई उम्मीद?

अनुकृति: सच कहूं तो साहित्य को नया पुराना करके देख नहीं पाती. मेरे पास गल्प साहित्य के लिए एक ही पैमाना है – अच्छा साहित्य वह जो अभिव्यक्ति को नए आयाम दे, प्रशस्त करे, अर्थपूर्ण कहानियां कहे. मैं स्वीकारती हूं कि यह पैमाना बेहद निजी है, इसके हर पद के अलग अर्थ, अलग व्याख्याएं हो सकती हैं. बहरहाल डिजिटल दौर में बहुत सा नया लेखन तो हो ही रहा है. झट पढ़े जाने का नशा कुछ तो लेखन की गुणात्मकता का नुक़सान करता ही है. लेखन की भीड़भाड़ में सरसरे तौर पर पढ़ा जाना, नम्रता के बतौर ‘लाइक’ आदि से भी लेखन और पठन का कोई भला नहीं होता. लेकिन साथ ही बहुत लोगों को स्वर मिलने और शब्द उपलब्ध होने से शायद कुछ अच्छा घटे, ऐसी आशा बनी रहती है.

प्रदीपिका: अंत में पाठकों के लिए कोई संदेश.

अनुकृति: पाठकों को मैं क्या संदेश दे सकती हूं? वे ही मुझे संदेश दें मेरा काम पढ़ कर. मेरी हिंदी रचनाएं, कहानी संकलन जापानी सराय और उपन्यास नीना आंटी, शायद मुठ्ठी भर ही पाठकों ने पढ़ा हो. बाक़ी, पढ़ते रहें, सब तरह का साहित्य, हर माध्यम में, जब फ़ुर्सत मिले तब और जब फ़ुर्सत ना हो तब भी. समय से नोक भर समय कुरेद कर, थकन से जड़ मन संभाल कर, नींद से बंद होती आंखें खोल कर. पढ़ें ताकि हम सब बचे रहें, ताकि बचे रहने का कारण बना रहे. पढ़ें प्लीज!

सत्याग्रह से साभार।

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