बहुत दिनों से
मां से बात नहीं हुई।
तब बात न होती तो आता फोन
आरै... फून भी नहीं करते।
उस स्वर में नहीं होती कोई डांट
होता केवल आग्रह...पीड़ा।
परवाह और ढेर सारी चिंता।
शाम होती तो लगता
अब समय है, बतियाने का
बजती रिंग...बजती ही रहती
होती देर... होती ही रहती।
कभी तुरंत उठता, कभी करनी होती घंटी बार-बार
मां की बात शुरू होती दुआओं से
एक-एक करके सबके नाम लेती
फिर कहती बतकही
भाई ...गांव के घर में
दीवार में आ गई है नमी।
गांव में बना रहा मंदिर
लोग कर रहे चंदा इकट्ठा
मैंने लिखा दिए हैं तेरे नाम से पैसे
दिन में बिजली नहीं आती
रात में काटते हैं मच्छर...।
पानी नहीं आता हर रोज
लाना पड़ता है, दूर से बाल्टी भर-भरकर
गैस खत्म हो गई थी, खरीदा नया सेलेंडर
एक दिन जब लगी थी पैर में चोट
वो साइकिल जिसे कभी दौड़ाते थे पापा
करते थे दावा- मैं दौड़ाता हूं सबसे तेज
आज खड़ा है, कोने में धूल फांकता
मां ने उसे झाड़ा था- पौंछा था उसका लोहा
जैसे लौट आए उसमें प्राण
वह डगमगाया और दौड़ा जैसे
गिरा मां के पैर, पैर में हुआ दर्द और आई सूजन
पूछा- क्यों छेड़ा उसे
मिला जवाब- तो तू आकै कर देग्या साफ
मां को पसंद था अपना घर
मां उसकी धूल-धूल को पहचानती थी
दीवार से झड़ती प्लास्टर हो
या बेरंग सफेदी, उसे चुभती थी
मां उन दीवारों को घर बनाती थी
जो अब करती हैं, किसी का इंतजार
छोड़ गया कोई उन दीवारों पर
अपनी पहचान
बीते दिनों गए तो घर ने पूछा था
कहां है मां...!
नहीं था जवाब मेरे पास।
वह घर मां का इलाका था
उनकी मर्जी के बगैर नहीं हिलता था एक भी पत्ता
शायद घर को भी पसंद था, वह कोलाहल
वह देता था संगत एक बुजुर्ग औरत के नरम स्वर को।
घर से लौटते अब दिल कांपता सा है
एक सवाल गले में हड्डी से अटकता है
किस के भरोसे छोड़ रहे हो मुझे
पहले आते थे, फिर चले जाते थे
रहता था तो कोई मेरे साथ, मेरे पास
अब हर कोने में बैठी मुर्दनी
दबाए मुंह, रोने को आतुर
कहां गई वह चहल, वह पहल
वह होली- वह दिवाली
कहां गई वह कहा-सुनी
चीख-पुकार, झरते पलस्तर से सब झर गए
मां चली गई एकाएक
बोलती रही, मुझे अब ले जाओ
बस वह गई तो नहीं लौटी वापस
उस घर में जोकि था उसका संसार
अब नहीं होती मां से बात
अब नहीं आता फून
अब मां हो गई मौन...हमेशा के लिए।
-लिखूंगा पर शर्त है, नाम मत जाहिर करना।