31 अक्तूबर 1984. देश को एक खबर ने सन्न कर दिया था। खबर यह थी कि देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को उन्हीं के सुरक्षाकर्मियों ने गोलियों से छलनी कर दिया है। यह खबर देश ही नहीं दुनिया में आग की तरह फैल गई। देश में सिखों के खिलाफ दंगे शुरू हो गए और राजधानी दिल्ली की सड़कों पर कत्लेआम देखा जाने लगा। उस खूनी दिन के घटने की आहट इंदिरा गांधी को बहुत पहले से मिलने लगी थी। इसे मुल्क पर संकट बताया गया था और एक ज्योतिष की भविष्यवाणी थी कि यह संकट 26 दिसंबर तक है...। यह भी कहा गया था कि इंदिरा जी पर जा़ती तौर से आया संकट 13 नवंबर से पहले भी घट सकता है। और वही हुआ।
अमृता प्रीतम ने डायरी में लिखा है....
इंदिरा जी मुल्क की हालत के बारे में बहुत उदास हैं। विस्तार से बताती रहीं कि पंजाब में फौज भेजने वाले फैसले के पीछे किन-किन खतरों की सूचना मिल चुकी थी जिनकी वजह से वह कदम उठाना पड़ा...
कैलाशपति जी के कहे अनुसार मुल्क पर आया संकट 26 दिसंबर तक है... और इंदिरा जी पर जा़ती तौर से आया संकट 13 नवंबर से पहले भी घट सकता है।
अमृता की डायरी
1984 की डायरी में से (पार्ट- 1)
14 सितंबर की रात
मध्यप्रदेश से अशोक नगर वाले श्री कैलाशपति इंदिरा जी से मिलना चाहते थे। कुछ ही दिनों में वह नवरात्र-अनुष्ठान में बैठ जाएंगे और उस समय वह इंदिरा जी पर और देश पर आने वाले संकट को टालने के लिए पूजा करेंगे, इसलिए कुछ मिनटों के लिए इंदिरा जी को बहुत नजदीक से देख लेना और अंतर में एक संकल्प धारण कर लेना वह जरूरी समझते थे...
जिस किसी को भी राजसत्ता से कुछ लेना है, मैं एक कदम भी उसके साथ नहीं चल सकती, पर कैलाशपति जी का सारा ध्यान देश की हालत पर केंद्रित है और देश की तकदीर के साथ जुड़ी हुई इंदिरा जी की खैरियत के साथ, इसलिए मैं निस्संकोच उन्हें शाम को सात बजे इंदिरा जी के पास ले गई ...
इंदिर जी ने कुछ मिनटों की बजाय करीब डेढ़ घंटे का वक्त देकर कैलाशपति जी के संकल्प को सुना। कैलाशपति जी ने अतीन्द्रिय शक्ति से निकट भविष्य के जिस संकट काल को देखा है, उसे सामने रखकर काफी देर चुपचाप कुछ सोचते रहे। शायद इस संकल्प को अपने अंतर में बसाया कि देश की सोई हुई आत्मिक शक्तियां जाग सकेंगी।
साधना उनकी है, शक्ति उनकी है, पर देश पर आया संकट अगर किसी जगह से भी टल सका तो आज के उनके संकल्प में मुझे एक निमित्त हो सकने की तसल्ली होगी...
इंदिरा जी मुल्क की हालत के बारे में बहुत उदास हैं। विस्तार से बताती रहीं कि पंजाब में फौज भेजने वाले फैसले के पीछे किन-किन खतरों की सूचना मिल चुकी थी जिनकी वजह से वह कदम उठाना पड़ा...
कैलाशपति जी के कहे अनुसार मुल्क पर आया संकट 26 दिसंबर तक है... और इंदिरा जी पर जा़ती तौर से आया संकट 13 नवंबर से पहले भी घट सकता है।
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31 अक्तूबर रात साढ़े 12 बजे
सारी पीठ में से बिजली की कंपकंपी गुजऱी, जिससे सारा माथा एक चीख बन गया... नींद तड़प कर टूट गई। घड़ी की ओर देखा- रात के बारह बजकर पच्चीस मिनट थे।
बदन से जैसे बिजली के दो तार छू गए। एक बड़ा ठंडा ख्याल था कि इंदिरा जी का कत्ल एक सपना है, और दूसरा गर्म जलता हुआ ख्याल- कि यह सपना नहीं, हकीकत है...
दिन का वाक्या याद आया- सवेरे करीब बारह बजे कृष्ण अशांत आए थे, मेडिकल इंस्टीट्यूट के पास से गुजर कर, और यह खबर लेकर कि इंदिरा जी पर कातिलाना गोली चलाई गई है...
फिर रेडियो की आवाज़, त्रिवेंद्रम से कमला दास का फोन, शहर से देविंदर का, गगन का और $फहमीदा का फोन... और फिर-फिर रेडियो की आवाज...
करीब एक महीना हुआ है, 20 सितंबर को दोपहर थी, जब प्राइम मिनिस्टर्स हाउस से फोन आया कि इंदिरा जी याद कर रही हैं। उस शाम एक घंटे से ज्यादा मैं उनके पास बैठी रही थी। यह पूछती रहीं कि पंडित कैलाशपति ने जो कहा है कि वक्त का भारतीयकरण किया जाए- तो वह कैसे मुमकिन हो सकता है? इस बात का जवाब तो हमारे साइंसदा ही दे सकते हैं, मैं नहीं दे सकती थी। मैं सिर्फ़ संवत जारी करने की और वक्त के भारतीयकरण वाली बात की अहमियत का जिक्र करती रही और वह फिक्र करती रहीं कि 13 नवम्बर तक उनके लिए जो जा़ती खतरा बताया जाता है, मैं उससे परेशान हूं...
ज़ाती खतरा तो है ही। सिर्फ जा़ती नहीं, सारे मुल्क को खतरा है... इंदिरा जी कहती रहीं और सियासी घटनाओं की कितनी ही पृष्ठभूमियां बताती रहीं कि किस-किस मजबूरी में सख्त कदम उठाने पड़े। अमृतसर दरबार साहिब पर फौजी कार्रवाई वाला कदम भी किस हालत में उठाना पड़ा... उस वक्त किस साजिश की खबर मिली थी, कुछ ही दिनों बाद क्या होने वाला था...
और बताती रहीं कि हमारी इंटेलिजेंस में भयानक खामियां आ गई हैं, हमारे कानून इतने कॉम्प्लीकेटेड हैं कि ठीक मौके पर ठीक कदम उठाया नहीं जा सकता। सबकुछ लफ्ज़ों में उलझ गया है, कागजी कार्यवाही में एक-दो लफ्ज़ों की कमी या अदल-बदल सारे इंसाफ को उलटा कर देती है...
बात अदालतों की भी चलती रही, उलझे हुए कानूनों की भी, बिकाऊ लोगों की भी.. और फिर जब उनके गिर्द मंडराते जा़ती खतरे की बात चली, सिक्योरिटी को ठीक अर्थों में सिक्योरिटी बनाने की, खासकर 13 नवम्बर तक के वक्त को बहुत हिफाजत के साथ गुजारने की, तो उनके मुंह से निकला- मुझे तो चारों तरफ अंधेरा ही अंधेरा दिखाई दे रहा है...
और आज- जब मुल्क की रोशनी बुझा दी गई है- खुदाया ! आज कौन सुनने वाला है! आज मैं किससे कहूं कि आज जो घट गया है, और आज जो अपने ही देश के लोगों के ज़मीर पर खूनी दा$ग लग गया है- इसके बाद मुल्क को चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा दिखाई दे रहा है...
31 अक्तूबर, रात साढ़े बारह बजे
टेलीविजन पर -इंदिरा जी का चेहरा दिखाया जा रहा है...फूलों से लिपटी हुई गर्दन- और शांत, बंद हुई आंखों का चेहरा ...
उसी बंद आंखों वाले चेहरे में से बहुत जागी हुई आंखों वाला चेहरा उभरता है- 20 सितंबर वाली शाम का, मेरे सामने की कुर्सी पर बैठी हुई इंदिरा जी का चेहरा, जो सियासी हालातों और अंधेरों की बात करता, अचानक चमक जाता है...
वह पूछती है- एक नज्मों की किताब थी, मैंने तुम्हें एक बार अपनी लायब्रेरी में दिखाई थी, वह मिल नहीं रही ...
कहती हूं (अमृता प्रीतम) - वह बल्गारियन शायरा एलिसा वेता बागरियाना की किताब थी, नहीं मिलती तो मैं आपको और ला दूंगी। यहां नहीं मिलती तो बल्गारिया से मंगवा दूंगी...
वह कहती हैं- लायब्रेरी की किताबें छतों तक रखी हुई हैं, मालूम नहीं वह कहां रखी गई हैं, उसमें एक नज़्म थी...
मैं उन्हें, उनकी पसंद की नज़्म याद दिलाती हूं, जिसकी ओर उन्होंने एक दिन खास इशारा किया था...
इंदिरा जी को उस नज़्म के साथ जुड़ी उस दिन वाली बात भी याद आती है, कहती हैं- तुम्हें याद है, उस नज़्म की एक सतर थी, जब मैंने पढ़ी तो तुम्हारे पास खड़े बासु भट्टाचार्य पूछने लगे थे कि वह नज़्म क्या मुझे कोई प्रेरणा देती है?
मुझे उस दिन वाली सारी बात याद थी, कहा- आपने जवाब दिया था, प्रेरणा नहीं, पहचान देती है... जैसे में हूं...
मैं उनकी पसंद की सतर मुंह जुबानी पढ़ती हूं- आई एम दि ब्लड सिस्टर ऑफ विंड, वाटर एंड वाइन... वह मुस्कुरा देती हैं...
खुदाया ! क्या उस दिन उनकी मुस्कराहट किसी होनी के अहसास की मुस्कराहट थी- कि इस जिस्म के पांच तत्व- खलायी (कास्मिक) तत्वों में मिलने वाले हैं...
वापस आने लगी थी, जब वह कमरे के बाहर तक छोड़ने आई तो दहलीज के पास खड़े होकर उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखा। एक बार फिर मुस्करा पड़ी...
आज मेरा अपना ही हाथ मेरे कंधे को छूकर देखता है- और देखता है कि उनकी स्थूल काया वाले हाथ की छुअन वहां अमृत हो गई है...
जानती हूं...मेरे कंधे पर जो कुछ अमृत हो गया है, वह मेरा अपना ही तड़पता अहसास है, पर इस अहसास का अगर कोई कण मात्र भी पा ले- तो पूरे देश की पवन में और पूरे देश के जलों में- वह इंदिरा जी के वजूद को छू सकता है...
वह - जो पवन-जलों की मां-जायी थी...
1 नवम्बर, सुबह नौ बजे
रात करीब तीन बजे का समय था। आंखें बंद थीं, पर पूरी नींद में नहीं। अध-सोई और अध जागी हालत में थी, जब बंद आंखों के सामने-चढ़ते सूरज की सुर्ख लाली वाली सफेद रोशनी फैल गई। यह रोशनी एक जगह टिकी हुई नहीं थी- लहरों की तरह आसमान में तैरती और फिर उसमें लीन हो जाती थी...
और फिर जैसे रोशनी की एक लहर सामने टिक गई हो, उसमें से इंदिरा जी का बड़ा शांत और मुस्कराता हुआ चेहरा उभरा, और लगा-चेहरे का कण-कण, रोशनी के कण-कण में लीन हो रहा है...
पूरी हालत लफ्ज़ों की पकड़ में नहीं आ रही। चेहरा-कण-कण रोशनी में लीन भी हो रहा था, फिर भी उसका वजूद कहीं से भी पिघलता हुआ नहीं दिख रहा था...
फिर नीचे से जमीन की तरफ नज़र गई। वहां - एक जैसे कद के और एक जैसी सूरत के कितने ही जानवर चल रहे थे। सारे जैसे एक ही जाति के जानवर हों। फैली-फैली आंखों से चारों ओर देखते हुए और लंबी-लंबी चोंचों से आपस में कुछ इशारे करते हुए।
उस हालत में जब मैं उन्हें देख रही थी, एक स्पष्टता मन में आई- कि ये सारी देशद्रोही ताकतें हैं और एक साजिश कर रही हैं... सारे जानवर-एक साजि़शी गिरोह की तरह आपस से जुड़कर बैठे हुए हैं।
वह दृश्य बड़ी देर आंखों के सामने रहा और मैंने महसूस किया कि मैं चेतन रूप में सोच रही हूं कि वे कौन-कौन लोग हैं- मैं उनहें कभी भी नहीं पहचान पहचान सकूंगी, क्योंकि सभी ने एक ही, जानवर का रूप धारण किया हुआ है। और न मैं उनकी चोंचों के इशारे समझ सकती हूं। सिर्फ उनकी फैली-फैली आंखों से अहसास होता है कि वे बड़ी खतरनाक साजिश कर रहे हैं और सारा मुल्क खतरे में हैं...
पंजाबी लेखिका अमृता प्रीतम की डायरी का अंश।
(अमृता प्रीतम की डायरी नामक पुस्तक से साभार)