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इनेलो और जजपा अगर एक हो जाएं तो हरियाणा की सियासत में आ सकता है बड़ा बदलाव !

ताऊ देवीलाल की पीढ़ी के लोग आज राजनीतिक और सामाजिक तौर पर अलग-अलग हो चुके हैं, लेकिन मौजूदा घटनाक्रम यह बता रहा है कि दोनों को अलग होने से हुए नुकसान का अहसास हो चुका है

10 अप्रैल, 2024 11:30 AM
अपने दादा एवं इनेलो सुप्रीमो ओम प्रकाश चौटाला से आशीर्वाद लेते दुष्यंत चौटाला। फाइल फोटो

चंडीगढ़ : हरियाणा में बदली परिस्थितियों में जजपा को जहां चुनौतीपूर्ण समय का सामना करना पड़ रहा है, वहीं इनेलो के समक्ष भी अस्तित्व का संकट कायम है। हालांकि दोनों दल एक ही परिवार से निकले हैं, राजनीतिक रूप से भी दोनों की विचारधारा मेल खाती है, सामाजिक रूप से भी दोनों में रक्तसंबंध हैं। बावजूद इसके दोनों के बीच मनमुटाव का दौर खत्म नहीं हो रहा। हालांकि सत्ता से बेदखल कर दी गई कि जजपा के नेताओं के स्वर अब जिस प्रकार बदलते दिख रहे हैं, वे सभी को चौंका रहे हैं। लेकिन इनेलो के प्रधान महासचिव का तर्क है कि अब समय बीत गया है। अब दोनों दलों के एक होने की संभावना खत्म हो चुकी है। बावजूद इसके जजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष का तर्क है कि अगर बड़े चौटाला साहब यानी ओमप्रकाश चौटाला कहें तो वे कभी भी आने को तैयार हैं।

 

परिवार टूटा, राजनीति बिगड़ी और प्रदेश की सियासत में खोया वर्चस्व

वास्तव में परिवार और राजनीति के बीच जैसी दीवार चौटाला परिवार में खींची हैं, उनसे प्रदेश की राजनीति को नुकसान पहुंचा है। एक समय हरियाणा में इनेलो का डंका बजता था, लेकिन फिर परिवार के अंदर कुछ ऐसा हुआ कि न परिवार एक रहा और न ही इनेलो। दोनों परिवार अलग हो गए। बड़े भाई अजय चौटाला के पुत्रों दुष्यंत चौटाला और दिग्विजय चौटाला ने रातों-रात अपनी अलग पार्टी खड़ी कर दस सीटें भी जीत ली। लेकिन छोटा भाई अभय चौटाला सिरसा जिले के ऐलनाबाद हलके से अपने अलावा कोई सीट नहीं जीत सका। इसके बाद से इनेलो जहां रसातल की ओर जाती दिख रही है, वहीं जजपा सत्ता से बेदखल करने के बाद अपने खराब समय का सामना कर रही है।

 

अब हालात ऐसे कि जजपा भी बिखर रही

अब जजपा की भी कमोबेश वही स्थिति बनती दिख रही है, जो एक समय इनेलो से अलग होते हुए उसने पार्टी के लिए खड़ी की थी। इस समय जजपा में दो फाड़ नहीं हो रही है, लेकिन उसके विधायक दूसरी पार्टियों की ओर रूख जरूर कर चुके हैं। सामने आ रहा है कि उसके पांच-छ विधायक भाजपा के खेमे में जाने को तैयार हैं। इसका आधार बहुत पहले से तैयार हो चुका था, लेकिन जैसे ही भाजपा और जजपा का मोह भंग हुआ तो जजपा के अंदर भगदड़ मच गई। सबसे बढ़कर पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष निशान सिंह ही पार्टी को अलविदा कह गए। सत्ता में रहते अनुशासन से बंधे रहे पार्टी नेता एवं विधायकों की सत्ता से बाहर होते ही बेचैनी गंभीर बात हो गई। सभी यही पूछ रहे हैं कि एकाएक आखिर ऐसा क्या हुआ कि जिस संगठन को एकजुट रखने के लिए पूरी पार्टी सक्रिय थी, फिर उसे छोड़ कर सभी जाने लगे।

 

एक चुनाव लड़ा और साढ़े चार साल में हो गई टूट

पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अजय चौटाला का बयान है कि पार्टी में जाने और आने का दौर जारी रहता है। बेशक, राजनीति में ऐसा ही होता है, लेकिन जजपा जिसका जन्म हुए ही अभी पांच साल भी नहीं हुए हैं, के साथ ऐसा होना राजनीतिक विश्लेषकों को भी चौंका रहा है। क्या इसकी वजह पार्टी नेतृत्व के प्रति नाराजगी है या फिर जजपा का प्रदेश में कोई भविष्य नहीं रहा। जजपा के साथ एक और संकट यह कायम हो गया है कि प्रदेश में जहां भी उसके नेता जा रहे हैं, वहीं किसान और ग्रामीण उनका विरोध कर रहे हैं। कह रहे हैं कि किसान आंदोलन के दौरान जजपा ने सरकार में रहते कोई काम नहीं किया। अब हालात ऐसे हैं कि जजपा नेताओं को इसके लिए क्षमाप्रार्थी होना पड़ रहा है। हालांकि अगर जजपा आज भी भाजपा के साथ सरकार में होती तो संभव है, ऐसा नहीं हुआ होता।

 

सत्ता में रहकर जनता के लिए किया काम, पर कमी कहां रह गई

वास्तव में जजपा ने वही किया है, जोकि एक नवोदित राजनीतिक दल को करना चाहिए था। वह चुनाव में उतरी और एक बड़े राजनीतिक दल को समर्थन देकर सरकार में स्थान पाया। अगर किसान आंदोलन की वजह से वह सरकार से हट जाती तो क्या इससे पार्टी का कोई भला हो सकता है। एक राजनीतिक दल को आगे बढ़ने का मौका सत्ता में रहते ही मिलता है। सरकार में रहते हुए जजपा नेताओं ने अनेक योजनाओं को लागू कराया है, निजी क्षेत्र की नौकरियों में 75 फीसदी आरक्षण का कानून जजपा की वजह से ही हरियाणा में लागू हो सका है। भाजपा ने अपने साढ़े नौ साल के शासनकाल में अनेक नीतियां, कार्यक्रम और योजनाएं धरातल पर उतारी हैं, लेकिन विपक्ष के लिए उनका कोई मोल नहीं है। वहीं जनता भी उनकी आलोचना करती हो सकती है।

 

अगर बदले हालात में इनेलो-जजपा आए साथ तो क्या होगा

हरियाणा की सियासत को करीब से समझने वाले मानते हैं कि इस समय इनेलो और जजपा के बीच दूरियां बहुत बढ़ चुकी हैं। इनेलो के दोफाड़ होने के बाद से यमुना में बहुत पानी बह चुका है। जिस कड़वाहट के साथ अजय चौटाला के बेटों ने इनेलो से किनारा किया था, या फिर इनेलो सुप्रीमो ओपी चौटाला ने अपने एक पुत्र के मोह में दूसरे पुत्र के बेटों के साथ नाइंसाफी की थी, उसने दोनों परिवारों के दिलों में नफरत का बीज बो रखा है। सत्ता में रहते एक-दो ऐसे अवसर भी सामने आए जब तत्कालीन उपमुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला की मुलाकात इनेलो सुप्रीमो और अपने दादा ओपी चौटाला से मुलाकात हुई, दुष्यंत ने उनके पैरों को छूकर आशीर्वाद लिया लेकिन बात इससे आगे नहीं बढ़ी। यह तो खबरनवीसों की गढ़ी गई खबरें हैं कि दोनों परिवार फिर एक हो रहे हैं। अब सत्ता से बाहर होकर जजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अजय चौटाला का रूख इनेलो के प्रति नरम हो गया है, लेकिन उनके पुत्रों का इस संबंध में क्या कहना है, यह अभी साफ नहीं हुआ है। लेकिन दूसरी ओर इनेलो के प्रधान महासचिव एवं अजय चौटाला के छोटे भाई अभय चौटाला इससे साफ इनकार कर रहे हैं कि परिवार एक होगा या फिर दोनों दल एक होंगे। यानी यह मोलभाव जजपा की ओर से किया जा रहा है। 

 

तो यह राजनीतिक गठजोड़ दे सकता है नए समीकरणों को जन्म 

दरअसल, बदले परिदृश्य में जजपा और इनेलो नेताओं को यह विचार करने की जरूरत है कि क्या वास्तव में वे एक होकर आगे बढ़ सकते हैं। यह कितना विचित्र है कि राजनीति ने एक परिवार को बांट दिया। लेकिन जब अधिकार और वर्चस्व की बात आती है तो ऐसा होना स्वाभाविक ही कहा जाएगा। बेशक, इनेलो और जजपा का गठजोड़ प्रदेश में नए समीकरणों को जन्म दे सकता है। ऐसा हुआ तो प्रदेश में एक तीसरी ताकत का जन्म हो सकता है, जोकि भाजपा और कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती होगी। बेशक इनेलो-जजपा अगर एक हो जाएं तो पार्टी को यह जवाब देना भारी पड़ेगा कि आखिर किसान आंदोलन के दौरान उन्होंने किसानों के लिए क्या किया। इनेलो के नेता यह कह सकते हैं कि उन्होंने तो किसानों के समर्थन में अभय चौटाला ने अपनी विधायकी से इस्तीफा दे दिया था, लेकिन जजपा ने सत्ता में रहते हुए केवल अपने स्वार्थ की ही परवाह की। 

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