साहित्य / समाज / संस्कृति

संगीत के रचयिता हैं शंकर जी और साधक मां सरस्वती

भगवान शिव ने जंगलों, पर्वतों और मैदानों में घूम-घूमकर सात प्रकार की ध्वनियां मालूम की, इन्हीं ध्वनियों के तारतम्यपूर्ण सामंजस्य से संगीत का जन्म हुआ

08 फ़रवरी, 2022 10:25 PM
विश्व के कण-कण में संगीत परमात्मा के अंश की तरह व्याप्त है। फोटो पिक्साबे

इसहफ्ते नॉलेज

संगीत का मानव जीवन से अटूट संबंध है। ईश्वर ने संगीत की उत्पत्ति मानव कल्याण के लिए ही की है, इसकी स्थिति आनंदमय है। विश्व के कण-कण में संगीत परमात्मा के अंश की तरह व्याप्त है। कहीं पर अव्यक्त और कहीं पर प्रकट। मेघों की ध्वनि, सागर की लहरों का गर्जन, पहाड़ी झरनों का कलकल नाद और वन उपवनों में विहंगों के कलरव, यह सब संगीत के ही विविध रूप हैं।


हमारे सांस्कृतिक विशेषज्ञों का कथन है कि संगीत का आरंभ करने वाले भगवान शंकर हैं। उन्होंने जंगलों, पर्वतों और मैदानों में घूम-घूमकर सात प्रकार की ध्वनियां मालूम कीं, इन्हीं ध्वनियों के तारतम्यपूर्ण सामंजस्य से संगीत का जन्म हुआ। ये सात ध्वनियां भिन्न पशुओं और पक्षियों से ली गई हैं। उनके नाम हैं- षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद। षड्ज सफेद मोर का स्वर, ऋषभ चातक की आवाज, गांधार बकरे की बोली, धैवत मेंढक की और निषाद हाथी की ध्वनियां कही जाती हैं।


सा, रे, गा, म, प,ध और नी, सा, इन्हीं ध्वनियों के संकेत रूप हैं, जोकि गाने की सरलता और सुगमता के लिए रख लिए गए हैं। इन्हीं ध्वनियों में उन्होंने पांच और ध्वनियां मिलाई हैं, जिनके नाम हैं-ऋषभ कोमल, गांधार कोमल, मध्यम,तीव्र, धैवत कोमल और निषाद कोमल। इस प्रकार उन्होंने इन्हीं ध्वनियों की सहायता से भिन्न-भिन्न राग रागनियां बनाईं और संगीत को ऐसा सुंदर एवं सुसंस्कृत रूप दिया, जिससे स्वर और लय में समूचा संसार बस गया।


भगवान शंकर ने संगीत का आविष्कार तो कर दिया, लेकिन अब प्रश्न यह उठ खड़ा हुआ कि इसको उचित रीति से स्मरण कौन करेगा, जिससे संसार को संगीत का ज्ञान हो और लोग उस से लाभ उठाएं। इसलिए एक स्त्री ने संगीत के प्रचार का कार्य अपने हाथों में लिया। वह स्त्री थी स्वर संधान निपुण एवं वीणापाणि देवी सरस्वती। उन्होंने इस विद्या को इस खूबी से अपनाया कि भगवान शंकर भी चकित रह गए। तार के सर्वप्रथम संगीत यंत्र या वाद्य वीणा का निर्माण मां सरस्वती ने ही किया।


संगीत का प्रभाव जड़-चेतन दोनों पर ही पड़ता है। दीपक राग द्वारा दीपों का स्वयं जल उठना, मेघ राग द्वारा पानी बरसने की बातें आपने सुनी होंगी। संगीत में ऐसी शक्ति है। हम देखते हैं कि अगर कोई वाद्य किसी बालक के सामने बजाया जाता है तो वह शीघ्र ही आकर्षित होकर उस ओर लपकता है। संगीत में यह विशेषता है कि इसका प्रभाव बड़ा विस्तृत और स्थायी रूप से मनुष्य की आत्मा पर पड़ता है, यह कला शांति रस बहाकर हमारे ह्दय में शांति का संचार करती है। संगीत से मन सदैव प्रसन्न रहता है, दुख और चिंता दूर होती हैं। उदासी पास नहीं फटकने पाती, चित्त ठिकाने रहता है। मेडिकल साइंस भी संगीत के इंसान पर अच्छे प्रभाव को स्वीकार करता है।


साहित्य की भांति संगीत में भी नवरस हैं। वीर, श्रृंगार, भयानक, रौद्र, हास्य, करुण, अद्भुत, वीभत्स और शांत। रसों के अनुरूप ही संगीत के स्वर, ताल और लय में भी भेद रहता है। विभिन्न रसों के संगीत का समय भी भिन्न-भिन्न है। वीर रस के स्वर लड़ाई के बाजों और वीरता के गानों द्वारा मनुष्य के रक्त में स्फूर्ति का संचार करते हैं। श्रृंगार रस में शादी-विवाह, मिलन, वियोग आदि के गाने आते हैं। शांत रस में भगवान की उपासना के स्वरों से सरिता की भांति बहता है, वहीं हास्य रस हंसी और मजाक के गाने से संबंध रखता है। करुण रस के गाने दुख और शोक प्रकट करते हैं। अद्भुत रस के गाने प्राय: कौतूहल में डालने वाले होते हैं।


वीभत्स और भयानक रसों में घृणा और भय मालूम होता है। रौद्र रस के गीतों को सुनकर क्रोध का संचार होता है, यदि इन सभी रसों को इनके असली रूप से गाया जाए तो ह्दय और मस्तिष्क में कौन से ऐसे मनोविकार हैं, जिन्हें ये जाग्रत नहीं कर सकते। इस प्रकार ऋतुओं के विचार से गानों का वर्गीकरण किया गया है। वर्षा ऋतु में मल्हार, होली में फाग, ह्दयों में अद्भुत प्रकार की तरंगें पैदा करते हैं। सुबह, दोपहर और शाम तथा रात के लिए भिन्न राग-रागनियां हैं। नारद जी से किसी ने एक बार संध्या के समय भैरवी गाने को कहा तो उन्होंने दिया कि इस समय भैरवी आराम में हैं,यदि मैंने उन्हें बुलाया तो वे कुरूप और खंडित होकर आएंगी।


समय की रागनी समय से गाई जाती है, इस अनुरूपता में विघ्न पड़़ने से उनके आनंद और प्रभाव दोनों घट जाते हैं। रात को प्रभाती और ज्येष्ठ में मल्हार गाना बुद्धि का दिवालियापन नहीं तो क्या है? उन लोगों को भी, जिन्हें संगीत का तनिक भी ज्ञान नहीं है या जिनके कान विशिष्ट राग-रागनियों के अभ्यस्त नहीं है, असमय गीत कर्ण-कटु प्रतीत होते हैं। विशिष्ट रागिनियां विशिष्ट अवसरों पर विशिष्ट ऋतुओं के वातावरण में ही शोभा देती हैं।

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