इसहफ्ते न्यूज. चंडीगढ़
पंजाब में कांग्रेस की कलह जहां खत्म होने का नाम नहीं ले रही, वहीं छत्तीसगढ़ में भी पार्टी के अंदर असंतोष उपज गया है। राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट के बीच भी संघर्ष की स्थिति है। हरियाणा में कांग्रेस के अंदर विभिन्न धड़े बने हुए हैं, पार्टी के नेता एकजुटता का दावा करते हैं, लेकिन फिर अपनी-अपनी राह ही चलते हैं। कांग्रेस के अंदर मुद्दों की कमी है और लगता है जैसे पार्टी नेता अपने-अपने एजेंडों पर ही काम कर रहे हैं। जाहिर है, पार्टी लंबे समय से केंद्र की सत्ता से बाहर है और राज्यों में जो सरकारें चल रही हैं, वे उस दौर की हैं, जब पार्टी में कुछ स्थाईत्व था। मौजूदा दौर में कांग्रेस की यह अंतकर्लह लगातार बढ़ती जा रही है, ऐसा तब है जब बीते दो वर्षों से पार्टी का कोई पूर्णकालिक अध्यक्ष ही नहीं है। पार्टी इस समय एक परिवार के तीन सदस्यों के इर्द-गिर्द ही घूम रही है। ऐसे में यह प्रश्न स्वाभाविक है कि क्या कांग्रेस का भविष्य है?
पंजाब कांग्रेस में कलह हर रोज नया रूप ले रही है। हालात यहां तक बन चुके हैं कि प्रदेश अध्यक्ष यह कहने से खुद को नहीं रोक पा रहे कि अगर उन्हें फैसले लेने से रोका गया तो वे ईंट से ईंट बजा देंगे। नवजोत सिंह सिद्धू के इस बयान के बाद उन पर तोहमत लग रही हैं कि वे अपनी ही पार्टी को नुकसान पहुंचाने में लगे हैं। हालांकि अब उनके समर्थक विधायक के हवाले से कहा गया है कि सिद्धू का यह बयान कांग्रेस हाईकमान नहीं अपितु प्रदेश प्रभारी के लिए था। सिद्धू प्रदेश प्रभारी हरीश रावत के उस बयान से खफा बताए जाते हैं, जिसमें उन्होंने कहा है कि मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में ही अगला विधानसभा चुनाव लड़ा जाएगा। हालांकि सिद्धू को यह बात खुद को कमजोर किए जाने की कोशिश नजर आती है। कुछ भी हो, लेकिन यह पूरा वाकया यह साबित करता है कि पार्टी के अंदर अनुशासन खंडित हो चुका है और हर कोई अपने-अपने पैंतरे चल रहा है।
मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह भी नहीं चाहते थे कि सिद्धू को प्रधान बनाया जाए, वे भी किसी अपने समर्थक को ही यह पद दिलाना चाहते थे, ऐसे में विवाद खड़ा होना लाजिमी है। एक पार्टी संगठन किसी एक व्यक्ति या दो-तीन लोगों का समूह नहीं होता। ऐसी ही स्थिति अब छत्तीसगढ़ में पैदा हो गई है। यहां भूपेश बघेल मुख्यमंत्री हैं, लेकिन उन्हें भी चुनौती मिल रही है। स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंह देव उन्हें यह चुनौती दे रहे हैं। हालात ऐसे बने हैं कि बघेल को दो बार दिल्ली दरबार का भ्रमण करना पड़ा है। अब उन्होंने दावा किया है कि बघेल ही राज्य में मुख्यमंत्री रहेंगे। अब बेशक, बघेल को कुछ राहत मिल गई हो, लेकिन निकट भविष्य में यह रार फिर सिर उठाएगी।
बहरहाल, कांग्रेस में उठापटक का मामला किसी एक या दो राज्य का नहीं है। कांग्रेस लगभग हर राज्य में किसी न किसी तरह की संगठनात्मक चुनौती का सामना कर रही है। राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच का घोषित विवाद अभी तक पूरी तरह निपटा नहीं है। पायलट खेमा जहां अपने पुनर्वास का इंतजार कर रहा है और इसमें हो रही देर को लेकर समय-समय पर अपनी बेचैनी प्रकट करता रहता है, वहीं गहलोत खेमा अब भी इस बात पर अड़ा हुआ है कि पार्टी नेतृत्व भाजपा की सरकार गिराने की साजिश को नाकाम करने वाले वफादारों की कीमत पर गद्दारों को बढ़ावा न दे। हालांकि ऐसे बयान के दौरान गहलोत खेमा यह भूल जाता है कि प्रदेश में कांग्रेस को सत्ता में लाने के लिए पायलट और उनके खेमे ने भी अथक मेहनत की है।
राजस्थान के हालात तो ऐसे थे कि जनता यह मान कर बैठी थी कि पायलट ही सीएम बनाए जाएंगे, लेकिन फिर एकाएक गहलोत सामने आ गए और पार्टी ने पुरानी वफादारी का ईनाम देते हुए उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया। पायलट के समकक्ष ज्योतिरादित्य सिंधिया भी कांग्रेस में भविष्य न पाकर भाजपा के हो गए। मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार को गिराने के लिए उन्होंने भाजपा का दामन थामा और फिर केंद्र में मंत्री बनकर इसका पुरस्कार भी हासिल कर लिया, वैसा ही उत्तर प्रदेश में जितिन प्रसाद भी कर रहे हैं। आगामी विस चुनाव में उनकी भाजपा में तो अहम भूमिका होगी ही वे भविष्य के नेता भी हो सकते हैं। अगर वे नेता कांग्रेस में ही रहते तो यह सब संभव नहीं होता।
चाहे दक्षिण का केरल और कर्नाटक हो या उत्तर का जम्मू कश्मीर या फिर पूर्वोत्तर का असम- कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है जहां पार्टी संगठन असमंजस और अनिश्चितता से उपजी चुनौतियों से न जूझ रहा हो। कांग्रेस में बीते वर्ष 23 नेताओं का एक ऐसा समूह सामने आया था, जिसने पूर्णकालिक अध्यक्ष की मांग करते हुए सोनिया गांधी को पत्र लिखा था। हालांकि इसके बाद पार्टी के अंदर इस बात पर घमासान शुरू हो गया कि ये 23 नेता सोनिया गांधी के नेतृत्व में विश्वास न करते हुए अपने लिए अलग राह बना रहे हैं। इसके बाद खुद राहुल गांधी ने ऐसे नेताओं को गद्दार की संज्ञा दी थी, इसे नेहरू गांधी परिवार के खिलाफ सीधी बगावत बताया गया था। यह भी नहीं भूला जाना चाहिए कि बीते माह ही राहुल गांधी ने बयान दिया था कि अगर किसी कांग्रेसी को पार्टी के अंदर रहना पसंद नहीं आ रहा है तो वह छोड़ कर जा सकता है। उन्होंने तो दूसरी पार्टी का नाम भी सुझा दिया था।
राहुल गांधी के इस बयान में हताशा नजर आ रही थी और अब राज्य इकाइयों में जारी संघर्ष शीर्ष नेतृत्व के बोझिल और दिशाहीन होने की वजह से और बढ़ रहा है। कांग्रेस में अगर निष्पक्ष सर्वे इस बात के लिए हो की यहां अध्यक्ष पद के लिए निर्वाचन कराया जाए तो ज्यादातर नेता-कार्यकर्ता चुनाव चाहेंगे। हालांकि यह तब संभव है जब पार्टी नेहरू-गांधी परिवार के आश्रय से बाहर निकले। वैसे, दूसरे राजनीतिक दलों में भी ऊंचाई पर बैठे नेताओं की पसंद और नापसंद चल रही है, यानी वहां भी लोकतंत्र का अभाव दिखेगा, लेकिन कांग्रेस तो परिवारवाद की जननी है और चाह कर भी यह इससे दूर नहीं जाना चाहती।
ऐसे में राहुल गांधी आखिर इस तथ्य से अनभिज्ञ क्यों हैं कि जो कांग्रेसी पार्टी छोड़ गए हैं, उन्होंने ऐसा क्यों किया। वास्तव में कांग्रेस को अपने नेताओं पर टीका-टिप्पणी करने के बजाय पार्टी नेतृत्व को बदलने पर विचार करना चाहिए। संभव है, पूर्णकालिक अध्यक्ष के नेतृत्व में पार्टी को नई ऊर्जा और ऊंचाई हासिल हो। एक परिवार का वर्चस्व कांग्रेस को आगे बढऩे से रोक रहा है, वहीं योग्य नेतृत्व को भी आगे नहीं आने दे रहा। कांग्रेस को खुद के अंदर पारदर्शिता लानी चाहिए और जनहित जिसके लिए वह एक समय जानी जाती थी, उस पर फोकस करते हुए आगे बढऩा होगा।