इसहफ्ते
आह, मैं कैसे भूल सकता हूं वो दिन। छोटी डंडी से साइकिल के टायर को गोल-गोल घुमाते धूल भरी गलियों में दौड़े फिरता था। गुब्बारों को हवा में उछालते और छत पर ठंडी आसमानी हवाओं के बीच फ्रूटी को सुड़क कर पीते हुए लगता कल है ही नहीं। बस आज है और यही है। हालांकि फिर वक्त को जैसे पंख लग गए। जिंदगी की आपाधापी में ऐसे खोए कि न अपनी याद रही और न ही अपने शौक की। पीछे मुड़ कर देखता हूं तो लगता है, कुछ वहीं छूट गया और मैं इतना आगे बढ़ गया कि अब उस दूरी को चाह कर भी नहीं पाट पाऊंगा।
पार्क में बैठे रस्तोगी अंकल बस बुदबुदाए जा रहे थे और मैं उन्हें सुनता जा रहा था। उनकी आंखों में सूनापन साफ था और बीते समय की यादों की धुंधली परछाइयां। कहने लगे उस समय बच्चों के पैर इतना चलते थे कि माता-पिता को पकड़-पकड़ कर उन्हें घर में बैठाना पड़ता था। हालांकि अब तो बच्चे घर से बाहर निकलते ही नहीं। अब तो घर में टीवी, कम्प्यूटर और मोबाइल फोन पर गेम खेलते-खेलते उनका पूरा दिन बीत जाता है। और अब तो दो वर्ष से कोरोना ऐसा आया है कि बच्चे न स्कूल जा पा रहे हैं और न ही पार्क में खेलने। वे तो घर में बंद होकर रह गए हैं। इसका असर उनके स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। अंकल रस्तोगी सही कह रहे थे। अगर कोरोना काल को अलग कर दिया जाए, तब भी बच्चे हाथ-पैर कम और दिमाग ज्यादा चला रहे हैं, लेकिन क्या यह सही है? नहीं।
एक रिसर्च बताती है कि माताओं से यह पूछा गया कि अपने बचपन में वे कितना खेलती थीं तो 80 फीसदी महिलाओं ने कहा कि वे तब खूब खेलती थीं, घर-आंगन में गुड्डे-गुडिय़ों के खेल के अलावा छिप्पम-छिपाई और फिर एक-दूसरे से रेस लगाने के खेल भी वे खेलते थे, हालांकि जब उनसे यह पूछा गया कि अब आपके बच्चे कितना खेल पाते हैं, तो उनमें से केवल 20 फीसदी ने ही कहाकि उनके बच्चे खेलते हैं। इस रिसर्च से यह पता चलता है कि किस तरह बच्चों का खेलना और उनकी भागदौड़ कम हो चुकी है।
विशेषज्ञों के अनुसार घर से बाहर जाकर खेलने का शौक बच्चों को अकादमिक, सामाजिक, भावनात्मक और शारीरिक रूप से मजबूत बनाता है। इसी दौरान उनमें प्रकृति के प्रति प्रेम पनपता है। विशेषज्ञ बताते हैं कि मिट्टी में खेलने वाले बच्चों का जीवन ज्यादा सफल रहता है। मसलन जब वे कीचड़ में अपने हाथों को मलते हैं, छोटे-छोटे जीवों को देखते हैं, तितलियों के पीछे भाग कर उन्हें पकड़ते हैं, जुगनुओं को अपनी मुठ्ठी में दबोचते हैं तो इससे उनकी पांचों इंद्रियां सक्रिय हो जाती हैं जोकि किसी मोबाइल फोन पर गेम खेलते हुए नहीं हो सकती। इससे जीवन के प्रति समझ विकसित होती है और समस्याओं का समाधान करने का हौसला भी आता है। इसलिए जरूरी है कि बच्चों के लिए सप्ताह में कम से कम एक बार बार जाने का कार्यक्रम बनाया जाए ताकि बच्चे प्रकृति का उसके मूल रूप में आनंद ले सकें।
विशेषज्ञों के अनुसार बच्चे प्रकृति के प्रति बेहद संजीदा होते हैं, लेकिन ऐसा तभी है जब हम उन्हें इसके लिए जगह प्रदान करेंगे। आज के हमारे शहरों में जब आसमान छूती इमारतें बन गई हैं और उनमें लिफ्ट से ही आना-जान संभव है, तब खेलने की जगह बिल्कुल खत्म होती जा रही है। स्कूलों में भी खेलने के लिए पर्याप्त जगह नहीं रही। ऐसे में प्रकृति हमसे दूर होती जा रही है।