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ग्रेट इंडियन सर्कस का एक रंगीला हूं। हंसाता हूं, रुलाता हूं...

बहरूपिया हूं, बहरूपिया या सिर्फ पिया, क्योंकि मेरे चाहने वाले बहुत। मुझे खरीदने वाले बहुत, इसलिए कि मैं किसी भी अंडे पर बैठूं तो मिनट में सोना

09 फ़रवरी, 2022 12:05 AM
वाह रे! मेरे सर्कस वाह! दुनिया का अनोखा सर्कस।

इसहफ्ते कला 

द ग्रेट इंडियन सर्कस

क्या खूब तमाशा है? दुनिया मुझे देख रही है, इसलिए कि ग्रेट इंडियन सर्कस का एक रंगीला हूं। हंसाता हूं, रुलाता हूं। रंग-बिरंगे कपड़े पहनता हूं। न सर पर टोपी न पैर में जूता। कभी हाथी का साथ तो कभी घोड़े की सवारी। हाथ में डुगडुगी तो बंदर का मदारी। हाथ में हंटर तो कब्जे में पिंजरे का शेर, जिसे देख बकरी मिनमिनाए। खैर, पर कब तक?


क्या खूब तमाशा है, लोग मुझे देख रहे हैं कि मैं ग्रेट इंडियन सर्कस का एक रंगीला जोकर हूं। हाथ में लंबा ब्रश है तो रंगों की पोटली है, गंगा किनारे नहाती गांव की छोरी है तो पास से साइकिल चलाता, सीटी बजाता, शहर का छोरा है। गांव और शहर के बीच पुलिस चौकी है तो अमन है, शांति ओम शांति संगीत है, हाउसफुल है, क्योंकि दीवार पर शाहरुख का बहुत बड़ा पोस्टर चिपका है।

 

क्या यह चित्रकला प्रदर्शनी है? नहीं, नहीं! यह ग्रेट इंडियन सर्कस है, जिसका मैं रंगीला जोकर हूं, लेकिन लोग समझते हैं मैं पेंटर हूं और लोगों को पसंद है, तो उन्हें खुश करने के लिए मैं पेंटर बन जाता हूं। आखिर मैं रंग-रंगीला जोकर ही तो हूं, कितने लिबास बदलता हूं और हर ज़बान में यही कहता हूं कि मेरे मुंह में तो ज़बान ही नहीं है। कई चेहरे मेरे पास हैं। बहरूपिया हूं, बहरूपिया या सिर्फ पिया, क्योंकि मेरे चाहने वाले बहुत। मुझे खरीदने वाले बहुत, इसलिए कि मैं किसी भी अंडे पर बैठूं तो मिनट में सोना।

 

वाह रे! मेरे सर्कस वाह! दुनिया का अनोखा सर्कस। जहां हाथी, घोड़ा, बंदर, भालू, बकरी, शेर साथ हैं। मर्द-औरत सब एक परिवार की तरह, एक बहुत बड़े तंबू के साए तले सोते,खाते, पीते हैं। साथ काम करते हैं। यहां जानवर और इंसान में कोई भेदभाव नहीं है, सबका एक ही भाव। कुछ कमाया तो आपस में बांट खाया। कभी नहीं देखा कि बंदर फाइव स्टोर में तो शेर किसी धर्मशाल में, बकरी किसी शेख के हरम में तो घोड़ा किसी तांगे वाले के गैराज में।

 

मैं जानता हूं  कि इस आलीशान टेंट में भीड़ एक बिलियन से ज्यादा हो चुकी है, यहां जानवर घट रहे हैं। इंसान की गिनती बढ़ती चली जा रही है। लिहाजा़ थोड़ी बहुत धक्का-धुक्की तो लाजि़म है, मगर हुआ ये, एक नामाकूल धक्के ने मुझे बेघर कर दिया।

-मशहूर पेंटर मकबूल फिदा हुसेन के आत्मकथांश

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