Bjp and SAD politics in Punjab : पंजाब में शिरोमणि अकाली दल (शिअद) और भाजपा के बीच अगर गठबंधन की पटरी नहीं बैठ सकी तो इसमें दोनों ही दलों को नुकसान की आशंका है। एक वह समय भी था, जब प्रदेश भाजपा के वरिष्ठ नेताओं और शिअद के संस्थापक नेताओं के बीच अनूठा तारतम्य नजर आता था, लेकिन बदले परिदृश्य में अब सिख-हिंदू समाज को जोडऩे की कड़ी बनने वाले दोनों राजनीतिक दलों के बीच महत्वाकांक्षा की दरार गहरा गई है।
हालांकि दोनों दलों के मध्य गठजोड़ न होने पर कोई अंतिम टिप्पणी नहीं की जा सकती, क्योंकि राजनीति में हवाओं का रूख देखकर चला जाता है। आज कोई अगर रूठ रहा है तो संभव है कल वह फिर उसी पाले में नजर आ जाए। बावजूद इसके शिअद एवं भाजपा के बीच गठबंधन सिरे न चढ़ने की बात राज्य के लोगों को भी नागवार गुजर रही है। माना यही जा रहा था कि नई परिस्थितियों में दोनों दल जोकि किसान आंदोलन के दौरान अलग हो गए थे, अब फिर एक साथ आएंगे और प्रदेश में आम आदमी पार्टी एवं कांग्रेस को मजबूत टक्कर देंगे। लेकिन अब यह तय हो गया है कि पंजाब में लोकसभा चुनाव के दौरान चतुष्कोणीय मुकाबला होगा और वोट बंट जाएंगी।
शिअद एवं भाजपा के बीच गठजोड़ न होने का आधार सीटों का बंटवारा और बंदी सिखों की रिहाई एवं एमएसपी की गारंटी मुद्दे बने हैं। निश्चित रूप से शिअद के लिए बंदी सिखों की रिहाई का मामला गंभीर है, वहीं किसान हितों की पैरोकार शिअद के लिए एमएसपी की गारंटी जैसा मुद्दा भी जरूरी है, लेकिन सीटों के बंटवारे पर दोनों दलों के बीच एकराय न बनना राजनीतिक महत्वाकांक्षा का चरम नजर आता है। शिअद बीते लंबे समय से सत्ता से बाहर है, वहीं भाजपा की उससे दूरी पंजाब में आम आदमी पार्टी को नया विकल्प बना चुकी है।
शिअद इस समय अपने खराब दौर से भी गुजर रही है, जब उसका काडर वोट उससे दूर हो रहा है वहीं अनेक नेता जिन्हें अब मनाकर वापस लाया जा रहा है, अपनी साख खो चुके हैं। क्या इन परिस्थितियों में भी शिअद खुद को प्रदेश में बड़ा भाई साबित करना चाहती है। हालांकि बीते कुछ समय के दौरान प्रदेश भाजपा ने अपने आप को परिष्कृत किया है और उसका नेतृत्व नई सोच एवं जुझारू प्रवृति के साथ सामने आ रहा है। प्रदेश भाजपा के पास अब अध्यक्ष सुनील जाखड़ के रूप में एक सक्षम एवं ईमानदार नेता हैं।
वहीं पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और उनकी पत्नी परणीत कौर भी अब भाजपा का हिस्सा हैं। इस बीच अनेक बड़े नेता भाजपा में अपनी आस्था जता रहे हैं। लुधियाना से कांग्रेस के सांसद रवनीत बिट्टू भी अब भाजपा की सदस्यता हासिल कर चुके हैं। बिट्टू कांग्रेस में असंतोषी नेता थे और वे रह-रहकर प्रदेश पार्टी नेतृत्व पर सवाल उठा रहे थे। निश्चित रूप से प्रदेश कांग्रेस में कई ऐसे युवा नेता हो सकते हैं, जिन्हें पार्टी का तौर-तरीका पसंद नहीं आ रहा। बीते विधानसभा चुनाव में जिस प्रकार से युवा की उपेक्षा करके प्रदेश में मुख्यमंत्री के चेहरे की घोषणा की गई थी, उसने अनेक युवाओं के दिल तोड़े थे, ऐसे में उन्हीं युवाओं ने अब अपने रास्ते अलग करने शुरू कर दिए हैं। यह तब है, जब भाजपा ने कांग्रेस समेत दूसरे दलों के युवा एवं जीत को आशावान नेताओं के लिए न केवल अपने दरवाजे खोले हैं, अपितु उन्हें टिकट से भी नवाजा है।
भाजपा से गठबंधन न होने के बाद शिअद अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल का बयान है कि पार्टी वोट की राजनीति नहीं बल्कि सिद्धांतों की लड़ाई लड़ती है। पार्टी के लिए सिद्धांत सबसे ऊपर हैं, वहीं यह भी कि पंजाब एवं खालसा पंथ के हितों से कोई समझौता नहीं किया जाएगा। गौरतलब बात यह है कि शिअद इससे खुद को कैसे अलग करेगी, जब उस पर इन्हीं सिद्धांतों को बलि चढ़ाने के भी आरोप हैं। और राजनीति में अगर कोई दल चुनाव में नहीं उतरेगा और जीत हासिल करके सरकार बनाकर नीतियों का निर्माण नहीं करवाएगा तो वह महज एक सामाजिक संगठन ही कहलाएगा।
क्या बतौर सामाजिक संगठन कोई उन नीतियों को लागू करवा सकता है जोकि राज्य एवं देश की दिशा परिवर्तित कर सकें। निश्चित रूप से शिअद अध्यक्ष के बयान गठबंधन न होने की निराशा का असंतोषजनक जवाब हैं। होना तो यह चाहिए था कि पंथक मुद्दों पर डटे रहकर सीटों के विभाजन में पार्टी समझौता करती, मौजूदा समय में शिअद को इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है कि वह सत्ता में आए। क्योंकि इसके बाद ही वह बंदी सिखों की रिहाई, एमएसपी की गारंटी आदि मुद्दों का समाधान करवा सकती थी। संभव है, पंजाब में शिअद और भाजपा दोनों ने एक अवसर गवां दिया है।