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तब क्या यह माना जाए कि कांग्रेस में किए जाने वाले वादे-इरादे सिर्फ फौरी मरहम-पट्टी के लिए हैं। पार्टी को दीर्घकालीन रणनीति और मजबूत इरादे जाहिर करने होंगे और नेतृत्व का अधिकार गैर गांधी परिवार को भी देना होगा।
कांग्रेस के चिंताजनक हालात के बीच यह सुखद है कि नेतृत्व ने पार्टीजनों को अनुशासन का पाठ पढ़ाया है। कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक जिसकी मांग लंबे समय से हो रही थी, में अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी का यह कहना काफी कुछ साफ करता है कि वे ही फुल टाइम अध्यक्ष हैं। जाहिर है, जी-23 के नेताओं के लिए भी यह सबक है, जोकि नए अध्यक्ष के चुनाव के लालायित हैं। बीते दिनों इस ग्रुप के एक नेता कपिल सिब्बल ने कहा था कि उन्हें नहीं पता कि पार्टी का नेतृत्व किसके पास है। अब सिब्बल को अपना जवाब मिल गया होगा। बीते दिनों में पार्टी नेताओं ने पार्टी फोरम से इतर होकर ऐसी बातें व्यक्त की हैं, जिनसे कांग्रेस की साख पर असर पड़ा है।
नेतृत्व को होना पड़ेगा कठोर
पार्टी के लिए यह समय बेहद चुनौतीपूर्ण है, लेकिन उसे अगर इसका अहसास हो रहा है कि देश यह चाहता है कि उसका स्वास्थ्य ठीक रहे और वह मजबूत विपक्ष की भूमिका में दिखाई दे तो फिर नेतृत्व को कठोर होना पड़ेगा। सोनिया गांधी ने कहा भी है कि उनसे बात करने के लिए मीडिया की मदद लेने की जरूरत नहीं है। बीते दिनों में कुछ वरिष्ठ नेताओं का यह आरोप रहा है कि पार्टी में संवाद नहीं हो रहा है, हालांकि सोनिया गांधी अगर अब यह कह रही हैं कि उनसे बात करने में मीडिया की मदद लेना आवश्यक नहीं है तो ऐसा कहने में संभव है, कुछ देरी हो गई है।
सोनिया ही करेंगी चुनाव में लीड
कांग्रेस कार्यसमिति की इस बैठक से कई मुद्दे साफ होते दिख रहे हैं। एक जहां अगले वर्ष पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस का नेतृत्व करने का है तो दूसरा अहम विषय नए अध्यक्ष का है। अब यह तय हो गया है कि कांग्रेस राज्यों में विधानसभा चुनाव जहां सोनिया गांधी के नेतृत्व में ही लड़ेगी वहीं अगले वर्ष अक्तूबर तक पार्टी को नया अध्यक्ष देने की तैयारी है। नए अध्यक्ष के लिए एक बार फिर राहुल गांधी को ही कमान सौंपे जाने की योजना है। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद पार्टी की हार की जिम्मेदारी लेते हुए राहुल ने अपना पद छोड़ दिया था। अब बेशक वे अध्यक्ष नहीं हैं, लेकिन कांग्रेस में और कांग्रेस के बाहर भी सभी जानते हैं कि वे अध्यक्ष से कम पावर रखते भी नहीं हैं।वैसे पार्टी अध्यक्ष के चुनाव का मुद्दा इतना गंभीर भी नहीं है,बजाय पार्टी के प्रदर्शन को बेहतर करने के।
प्रदर्शन को बेहतर करना जरूरी
पंजाब जैसे गतिशील राज्य में कांग्रेस को चुनाव से पांच महीने पहले अपने मुख्यमंत्री को बदलना पड़ा है। अब नए मुख्यमंत्री के समक्ष बेशुमार चुनौतियां हैं, इसी प्रकार दूसरे राज्यों के भी हालात कांग्रेस के विपरीत नजर आते हैं। उत्तर प्रदेश में लखीमपुर खीरी मामले में राजनीति को चरम पर ले जाने का कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वढेरा ने साहस किया लेकिन टीवी कैमरों के सामने जो घटता है, चुनाव के वक्त वह उलट भी साबित हो सकता है। जनता वोट देते वक्त सबकुछ देखती है। बेहतर यह होकि कांग्रेस सत्ताधारी दल या फिर ऐसी आकस्मिक घटनाओं पर राजनीतिक पारा चढ़ाने के बजाय मुद्दों का तलाश करे और जनता के दिलोदिमाग में भाजपा का विकल्प कायम करे।
पार्टी में जारी फूट तो बंद हो
वैसे, अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी यह समझती हैं कि इस समय कांग्रेस के लिए जहां अपनी छवि को बेहतर बनाने की आवश्यकता है वहीं एकजुटता भी जरूरी है। पंजाब कांग्रेस में जैसी फूट मची है, वह किसी भी तरह से सफलता के लक्षण नहीं देती। ऐसी ही फूट सभी राज्यों में देखने को मिल रही है। हरियाणा के ऐलनाबाद में हो रहे उपचुनाव के दौरान कांग्रेस उम्मीदवार के पक्ष में अभी तक केवल प्रदेश अध्यक्ष कुमारी सैलजा ही प्रचार कर रही हैं। यहां पूर्व मुख्यमंत्री एवं नेता विपक्ष भूपेंद्र सिंह हुड्डा व उनके सांसद पुत्र दीपेंद्र हुड्डा नहीं पहुंचे हैं, जबकि भाजपा-जजपा और इनेलो ने यहां प्रचार का एक दौर पूरा कर लिया है। कांग्रेस उम्मीदवार पवन बैनीवाल को कुमारी सैलजा समर्थक माना जाता है, उन्होंने ही बैनीवाल को पार्टी में शामिल किया था। इससे पहले बरोदा उपचुनाव के दौरान भी कांग्रेस में यह दूरियां साफ दिखी थीं। यहां हुड्डा समर्थक उम्मीदवार के समर्थन में प्रचार करने के लिए कुमारी सैलजा समेत दूसरे कांग्रेस नेताओं ने कोई दिलचस्पी नहीं ली थी। जाहिर है, ऐसे में सोनिया गांधी का संदेश बड़े से लेकर छोटे नेता और हर कार्यकर्ता तक जाना चाहिए। लेकिन यह भी जरूरी है कि महज कहने से काम न चलाया जाए, अपितु इसे अमल में भी लाया जाए। क्या कांग्रेस नेतृत्व इसका साहस करेगा?
आंतरिक दिक्कतों को सुलझाए पार्टी
दरअसल, कांग्रेस को अपनी आंतरिक दिक्कतों को अंदर ही सुलझाना चाहिए। पार्टी नेतृत्व को उन नेताओं को उपेक्षित करने से बचना चाहिए जोकि जी-23 के गठन का आधार बनते हैं। यह भी सही है कि अगर पार्टी के अंदर समुचित सम्मान और प्रोत्साहन नहीं मिलेगा तो वे नेता जोकि अपने भविष्य को कुंठित होते नहीं देखना चाहते, दूसरी जगह तलाशेंगे ही। कई ऐसे नाम हैं, जोकि कांग्रेस के पर्याय बन चुके थे, लेकिन आज वे दूसरी पार्टियों की शोभा बढ़ा रहे हैं। कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक से पहले उन जी-23 नेताओं को अगर विश्वास में लेने की प्रक्रिया जारी है, तो यह सराहनीय है। वैसे, सोनिया गांधी ने बेशक कहा है कि उन्हें ही पूर्णकालिक अध्यक्ष समझा जाए लेकिन तकनीकी रूप से वे पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष ही नियुक्ति की गई थीं, कांग्रेस एक परिवार आधारित पार्टी है, ऐसे में वे दबाव डालकर कह सकती हैं कि वे ही पूर्ण अध्यक्ष हैं लेकिन यह अलोकतांत्रिक ही कहलाएगा।
सभी इच्छुक आमंत्रित किए जाएं अध्यक्ष पद के लिए
पार्टी को यह भी करना चाहिए कि वह अध्यक्ष पद के लिए किसी एक नाम जैसा कि अभी से यह तय किया जाने लगा है, सभी इच्छुक नेताओं से आवेदन आमंत्रित करे। ऐसा करके कांग्रेस ज्यादा बेहतर तरीके से असंतुष्टों को साध सकेगी। हालांकि कांग्रेस के लिए यह बेहद चुनौतीपूर्ण होगा, क्योंकि नेहरू-गांधी परिवार से इतर किसी नेता का अध्यक्ष बनना दूर की कौड़ी दिखता है। तब क्या यह माना जाए कि कांग्रेस में किए जाने वाले वादे-इरादे सिर्फ फौरी मरहम-पट्टी के लिए हैं। पार्टी को दीर्घकालीन रणनीति और मजबूत इरादे जाहिर करने होंगे और नेतृत्व का अधिकार गैर गांधी परिवार को भी देना होगा।