विकास बहुगुणा
‘मान लीजिए कि हम किसी विमान पर सवार हैं जो बॉम्बे जा रहा है. तो क्या हम सभी वोट करके ये फैसला करते हैं कि विमान कौन उड़ाएगा? नहीं, हम एयरलाइंस जैसी सक्षम एजेंसी को ये तय करने देते हैं कि इस काम को कौन सबसे अच्छे तरीके से कर सकता है, जो इस कारोबार को समझती है और विमान को उड़ाने की जिम्मेदारी यथासंभव सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति को देती है.’
कुछ समय पहले तेलुगू फिल्मों के सुपरस्टार विजय देवरकोंडा के इस बयान पर विवाद हो गया था. यह उदाहरण उन्होंने अपने उस विचार के समर्थन में दिया था कि लोकतंत्र में सबको वोट देने का अधिकार नहीं होना चाहिए क्योंकि लोग तो रुपये और शराब जैसी चीजों के लिए भी वोट दे देते हैं.
वैसे वोट देने का अधिकार भले ही 18 साल या इससे ऊपर के सभी नागरिकों को हो, लेकिन देश में किसी भी चुनाव के दौरान अक्सर 25-50 फीसदी लोग ऐसे होते हैं जो इस अधिकार का इस्तेमाल नहीं करते. इस वजह से कई बार ऐसा होता है कि कुल मतदाताओं के एक चौथाई समर्थन से भी कोई उम्मीदवार जीत जाता है या कोई पार्टी सरकार बना लेती है. कई मानते हैं कि ऐसी सरकार बाकी तीन चौथाई लोगों का प्रतिनिधित्व नहीं कर रही होती जो कि लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है।
इसलिए लंबे समय से मांग होती रही है कि कानून बनाकर मतदान को अनिवार्य कर दिया जाए. गुजरात इस संबंध में पहल कर चुका है. 2015 में उसने स्थानीय निकाय चुनावों में मतदान अनिवार्य बनाने वाला एक कानून बनाया था. गुजरात स्थानीय निकाय कानून (संशोधन) अधिनियम कहता है कि चुनावों में मतदान न करने वाले को इसका कारण बताना होगा और अगर वह कारण संतोषजनक न हुआ तो ऐसे व्यक्ति के लिए दंड का प्रावधान होगा. मतदान को कानून के जरिये अनिवार्य बनाने के पीछे का तर्क सीधा सा है कि लोकतंत्र में लोक की ज्यादा से ज्यादा भागीदारी होनी ही चाहिए.
लेकिन विचार की एक धारा इसके उलट भी जाती है. यह कहती है कि सबको मतदान का अधिकार नहीं होना चाहिए. विजय देवरकोंडा ऐसा मानने वालों की कड़ी में सबसे नया लोकप्रिय नाम हैं. स्वतंत्रता संग्राम के सबसे बड़े नायकों में से एक सुभाष चंद्र बोस का तो यहां तक मानना था कि आजादी के बाद कम से कम 20 साल तक किसी को वोट देने का अधिकार न हो और भारत पर किसी निष्ठुर तानाशाह का शासन रहे.
वैसे वोट देने का अधिकार सबको न हो, यह कोई नया विचार नहीं है. राजनीति विज्ञान में इस पर चर्चा होती रही है. इसे सीमित मताधिकार की अवधारणा कहा जाता है. इसके समर्थकों की दलील होती है कि शासन व्यवस्था के लिए योग्य प्रतिनिधियों के चयन की समझ सबके पास नहीं होती, इसलिए सिर्फ विवेकशील व्यक्तियों को वोट का अधिकार होना चाहिए. इसके उलट सार्वभौम मताधिकार की अवधारणा है जो सबको वोट का अधिकार देने की बात करती है।
इसके समर्थकों का मानना है कि हर नागरिक को वोट का अधिकार एक तरह से हर व्यक्ति की सत्ता के निर्धारण में भागीदारी सुनिश्चित करना है. उनके मुताबिक इससे यह संदेश जाता है कि अमीर हो या गरीब, इस कवायद में सबके पास बराबर हक है. इससे सत्ता के लिए उनके हितों की अनदेखी करना आसान नहीं होता. लेकिन ऐसे लोगों का भी एक वर्ग है जो मानता है कि इस व्यवस्था में ज्यादातर वोटर सही मायने में अपने हितों से ही अनजान होते हैं और वे पूर्वाग्रह और गलत जानकारी के आधार पर वोट करते हैं. जिसका नुकसान सबको होता है.
अतीत में झांकें तो आजादी से पहले भारत में सबको वोट का अधिकार नहीं था. तब चुनाव सीमित तौर पर होते थे. इसराइल की यूनिवर्सिटी ऑफ हाइफा में आधुनिक भारतीय इतिहास की प्रोफेसर ऑर्निट शैनी अपनी किताब ‘हाउ इंडिया बिकम डेमोक्रेटिक: सिटिजनशिप एट द मेकिंग ऑफ़ द यूनिवर्सल फ्रैंचाइजी’ में इस बारे में लिखती हैं, ‘ब्रिटिश अधिकारियों का तर्क था कि सबको वोट का अधिकार भारत के लिए सही नहीं होगा.’ उस समय महिलाओं और भूमिहीनों सहित एक बड़ी आबादी वोट नहीं दे सकती थी.
आजाद होते ही भारत ने 21 साल से ऊपर के हर व्यक्ति को वोट करने का अधिकार दे दिया. ऐसा करने वाला भारत दुनिया का पहला देश था. यह फैसला संविधान सभा ने अप्रैल 1947 में ही कर लिया था. उसी साल अगस्त में 17 करोड़ से भी ज्यादा वोटरों की लिस्ट बनाने की विराट कवायद शुरू हुई जो 1949 तक पूरी हो गई. भारत का संविधान 26 जनवरी 1950 से लागू हुआ था. यानी तकनीकी तौर पर देखें तो भारत का नागरिक होने से पहले ही 17 करोड़ लोगों को मतदाता का दर्जा मिल गया था. यहां जानना जरूरी है कि लोकतंत्र का आदर्श कहे जाने वाले अमेरिका में भी तब तक ऐसा नहीं हुआ था.
1952 में पहले आम चुनाव के साथ ही भारतीय लोकतंत्र की गाड़ी चल पड़ी. लेकिन इस चुनाव में कुछ तथ्य ध्यान खींचने वाले थे. तब देश में साक्षरता की दर महज 20 फीसदी थी. यही नहीं, 28 लाख महिलाओं के नाम वोटर लिस्ट से इसलिए हटा दिए गए कि उन्होंने अपना असल नाम नहीं बल्कि खुद को फलां की पत्नी या फलां की मां बताया था. कुछ विश्लेषक मानते हैं कि आज भी भारत में वोटरों का एक बड़ा वर्ग है जो उन मानकों पर खरा नहीं उतरता जो किसी जागरूक नागरिक की पहचान होते हैं. ऐसी राय रखने वालों के मुताबिक यही वजह है कि आज भी चुनाव के समय राजनीतिक पार्टियों द्वारा वोटरों को शराब और पैसे बांटकर उनके वोट खरीदने का चलन आम है.
2016 में अमेरिका की जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी में राजनीतिक दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर जेसन ब्रेनन की एक किताब आई थी. इसका नाम था अंगेस्ट डेमोक्रेसी. इसमें प्रोफेसर ब्रेनन ने एक ऐसी व्यवस्था की वकालत की थी जिसमें उन नागरिकों के वोटों का वजन या ‘वेटेज’ ज्यादा हो जिनका राजनीतिक ज्ञान दूसरों से अधिक है. प्रोफेसर ब्रेनन का मानना था कि चुनाव में ऐसे लोगों के वोट को ज्यादा महत्व दिया जाना चाहिए जो राजनीतिक रूप से सबसे ज्यादा जागरूक हों. लोकतंत्र की अच्छाइयों को यथावत रखकर वोटों के इस नए वर्गीकरण वाली व्यवस्था को उन्होंने एपिस्टोक्रेसी कहा था. डेमोक्रेसी की तरह यह भी ग्रीक भाषा का शब्द है जिसका मतलब होता है ज्ञान की सत्ता.
अपनी किताब के प्रकाशन के बाद एक साक्षात्कार में प्रोफेसर ब्रेनन का कहना था, ‘लोकतंत्र का एक दुर्भाग्यशाली साइट इफेक्ट भी है. ये नागरिकों को ज्ञानहीन, कुतर्की और कबीलाई बनने के साथ-साथ उन्हें अपना वोट ज्यादा गंभीरता से इस्तेमाल न करने के लिए भी प्रोत्साहित करता है.’ उन सहित कई विश्लेषक हैं जो मानते हैं कि वोटरों के एक हिस्से की अज्ञानता के चलते सभी नागरिकों के सिर पर एक अयोग्य सरकार बैठने की स्थिति नहीं बननी चाहिए. भारत जैसे देशों के संदर्भ में तो यह बात और अहम हो जाती है जहां एक राजनीतिक फैसला 135 करोड़ से ज्यादा लोगों की जिंदगी को प्रभावित करता है.
कुछ विश्लेषक सबको वोटिंग का अधिकार न देने के समर्थन में एक और तर्क देते हैं. उनके मुताबिक हो सकता है कई वोटरों की मंशा नेक हो, लेकिन योग्य जनप्रतिनिधि चुनने के मामले में सिर्फ नेकदिल होने से काम नहीं चलता, इसके लिए नागरिक शास्त्र और समाज विज्ञान का ठीक-ठाक ज्ञान भी चाहिए जो ज्यादातर नागरिकों के पास नहीं होता. ऐसे विश्लेषकों का मानना है कि एक ऐसी व्यवस्था बनाई जानी चाहिए जिसमें सामाजिक-राजनीतिक ज्ञान की एक न्यूनतम बुनियादी समझ के बाद ही किसी को वोट डालने का अधिकार दिया जाए. उनके मुताबिक इसे आंकने के लिए एक परीक्षा का प्रावधान किया जा सकता है जिसे पास करने के बाद ही कोई वोट डाल पाए. कुछ जानकारों के मुताबिक एक विकल्प यह भी हो सकता है कि वोट का अधिकार तो हर नागरिक को हो, लेकिन इस तरह की परीक्षा पास करने वालों के वोट का वजन ज्यादा हो. और इस तरह की परीक्षा समय-समय पर आयोजित की जा सकती है.
यहां पर एक अहम सवाल उठ सकता है. आखिर बुनियादी सामाजिक-राजनीतिक ज्ञान को मापने का पैमाना क्या हो और इसे तय करने का अधिकार किसको दिया जाए? कई जानकार मानते हैं कि यह कोई मुश्किल काम नहीं है. जैसे अमेरिका जाने वाले जब वहां की नागरिकता के लिए आवेदन करते हैं तो उन्हें एक परीक्षा देनी होती है. इसे यूनाइडेट स्टेट्स सिटिजनशिप टेस्ट कहते हैं. इसमें कुछ इस तरह के सवाल पूछे जाते हैं. अभी अमेरिका का राष्ट्रपति कौन है? एक सीनेटर का चयन कितने साल के लिए होता है? संघीय कानून कौन बनाता है? वे कौन से दो तरीके हैं जिनके जरिये अमेरिकी नागरिक अपने लोकतंत्र में भागीदारी कर सकते हैं?
वगैरह-वगैरह. कई जानकारों के मुताबिक वोट का अधिकार देने के लिए होने वाली परीक्षा में भी इसी तरह के सवाल पूछे जा सकते हैं जिनकी आसानी से पुष्टि हो सकती है और जिन पर किसी भी तरह का विवाद होना नामुमकिन है. इन जानकारों का मानना है कि इस तरह के तमाम सवाल हैं जो सटीकता से बता सकते हैं कि क्या संबंधित व्यक्ति के पास वह सामाजिक-राजनीतिक ज्ञान है जो किसी चुनाव के लिहाज से अहम होता है.
लेकिन अगर बिना पढ़े-लिखे लोगों को लोकतंत्र के इस सबसे महत्वपूर्ण अधिकार से वंचित कर दिया जाएगा तो क्या यह उनके साथ अन्याय नहीं होगा? इसके जवाब में कहा जा सकता है कि ऐसे लोगों के लिए परीक्षा की व्यवस्था कुछ दूसरे तरीके से की जा सकती है ताकि यह देखा जा सके कि वे लोकतंत्र की मूल भावना को समझते हैं या नहीं. और समय-समय पर लोगों को किसी लोकतंत्र को ठीक से चलाने वाले जरूरी मूल्यों का प्रशिक्षण देने की व्यवस्था भी की जा सकती है.
उधर, कई विश्लेषक इस तरह के सुझावों को खारिज करते हैं. उनके मुताबिक लोकतंत्र का मतलब यही है कि सभी नागरिक बराबर हैं और इस तरह की व्यवस्था इस मूल भावना के खिलाफ जाती है. लेकिन सीमित मताधिकार के समर्थक भी इस दावे को उतनी ही आसानी से खारिज कर देते हैं. उनके मुताबिक वोट देना एक बड़ी जिम्मेदारी का काम है और यह अधिकार मेहनत से हासिल किया जाना चाहिए और किसी को यह न मिले तो इसमें हीनताबोध वाली कोई बात नहीं होनी चाहिए. प्रोफेसर ब्रेनन कहते हैं, ‘हम इस अधिकार को प्लंबिंग या डॉक्टरी के लाइसेंस की तरह देख सकते हैं. अमेरिकी सरकार ने मुझे इस तरह का कोई लाइसेंस नहीं दिया है, लेकिन इससे मैं ये नहीं सोचता कि मैं दूसरों से कमतर हूं.’
लोकतंत्र यानी डेमोक्रेसी की अवधारणा ग्रीस से आई है. लेकिन यह जानना दिलचस्प हो सकता है कि ईसा पूर्व छठवीं सदी में ग्रीस की राजधानी एथेंस में जो लोकतांत्रिक सरकार चलती थी उसमें भी सबको वोट देने का अधिकार नहीं था. वहां भी नागरिकों के उस 30 फीसदी वर्ग को ही वोट देने का हक था जिसने अपना अनिवार्य सैन्य प्रशिक्षण पूरा किया हो.
साभार सत्याग्रह