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राजनीति में अगर सबकुछ स्वत: होने लगे तो फिर संभव है, सभी विवादों का समाधान हो जाएगा। बीते मॉनसून सत्र के दौरान केंद्र सरकार को संविधान में संशोधन करके ओबीसी बिल लाने की आवश्यकता इसलिए आ पड़ी थी क्योंकि महाराष्ट्र सरकार अपने यहां मराठा को ओबीसी मान चुकी है और वे आरक्षण के दायरे में आए तो यह मामला अदालत में पहुंच गया। हालांकि अदालत ने महाराष्ट्र सरकार के इस फैसले को रद्द करते हुए कहा कि उसे ऐसा करने का अधिकार नहीं है। इसकी वजह यह बताई गई क्योंकि संविधान के 102वें संशोधन के जरिए केंद्र सरकार 2018 में ही किसी भी जाति को पिछड़ा वर्ग की सूची में डालने का अधिकार राज्य सरकारों से वापस ले चुकी है। यह अधिकार अब सिर्फ केंद्र सरकार में निहित है। यहीं से गेंद केंद्र सरकार के पाले में आ गई थी। जिन-जिन राज्यों में पिछड़ा वर्ग सूची में शामिल होने की मांग चल रही है, उन सभी राज्यों ने यह कहना शुरू कर दिया था कि, यह तो केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र की बात है। हम इस संबंध में कुछ कर ही नहीं सकते। केंद्र सरकार को भी लगने लगा था कि यह उसके लिए मुश्किल बन गई है, राज्य अपने यहां पनप रहे आक्रोश को उसके पाले में सरका दे रहे हैं। इसके मद्देनजर संसद सत्र में संविधान के 127वें संशोधन के जरिए केंद्र सरकार ने एक बार फिर ओबीसी सूची तय करने का अधिकार राज्यों को दे दिया।
दरअसल, संविधान के संशोधन के जरिए कानून लाए जाने के बाद अगर किसी राज्य को सबसे पहले ओबीसी की सूची को बदलने के लिए पहल करनी चाहिए थी तो वह था महाराष्ट्र। हालांकि ओबीसी की सूची के संबंध में सबसे ज्यादा सक्रियता बढ़ गई है उत्तर प्रदेश में। यूपी का पिछड़ा वर्ग आयोग जल्दी ही 39 जातियों को पिछड़ा वर्ग सूची में शामिल करने की सिफारिश करने वाला है। राज्य आयोग के अध्यक्ष का बयान आया है, जिसमें उन्होंने कहा है कि आयोग के समक्ष जिन जातियों की ओर से पिछड़ा वर्ग की सूची में शामिल होने के आवेदन आए थे, उनमें से 24 जातियों का सर्वे का काम पूरा हो चुका है। 15 का पूरा होने की ओर है। हम जल्दी ही अपनी सिफारिश राज्य सरकार को भेज देंगे। फैसला लेना सरकार का काम होगा।
जिन 39 जातियों के पिछड़ा वर्ग सूची में शामिल होने की संभावना जताई जा रही है, उनमें से ज्यादातर अभी अगड़ी जाति में शामिल हैं और भाजपा की वोटबैंक के रूप में देखी जाती हैं। इनमें अग्रहरी, वैश्य, केसरवानी वैश्य, रुहेला, भाटिया, कायस्थ, भूटिया, बगवां, दोहर, दोसर वैश्य, भाट आदि शामिल हैं। चूंकि यूपी में अब सिर्फ छह महीने बाद विधानसभा चुनाव होने हैं, इस वजह से यहां हर मुद्दे को लेकर सरकार और भाजपा की ओर से संवेदनशीलता बहुत ज्यादा बढ़ी हुई है। अगर आयोग चुनाव से पहले अपनी सिफारिश सरकार को भेज देता है तो फिर सरकार को चुनाव से पहले ही कोई न कोई फैसला लेना पड़ जाएगा। इसके बाद वहां के बहुत सारे नए राजनीतिक और सामाजिक समीकरण बन सकते हैं। मामला दो-चार जातियों का नहीं, बल्कि 39 जातियों का है.
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि चुनाव से पहले भाजपा यूपी में पिछड़ा वर्ग सूची को विस्तार देकर अपने हक में राजनीतिक समीकरण बनाना चाहेगी। यूपी की राजनीति में पिछड़ा वर्ग काफी अहम भूमिका अदा करता है। यह तब है, जब भाजपा ने अपने चेहरे को परिवर्तित करने का मन बनाया हुआ है। एक समय भाजपा को ऊपरी जात के लोगों की ही पार्टी कहा जाता था, लेकिन वर्ष 2014 में मोदी और अमित शाह के हाथ में पार्टी की कमान आने के बाद पार्टी ने ओबीसी के बीच पहुंच बनाने में कामयाबी पाई। ज्यादातर राज्यों में, खासतौर पर हिंदी बेल्ट में यह पाया गया कि पिछड़ा वर्ग में भी जो अति पिछड़ा वर्ग है, उसने भाजपा को अपनी पार्टी मान लिया है। राजनीतिक गलियारों में मोदी सरकार को ओबीसी सरकार इसलिए कहा जाता है कि केंद्रीय मंत्रिपरिषद में 27 ओबीसी मंत्री हैं। यूपी में इन दिनों गैर भाजपा दलों, जिनमें एसपी-बीएसपी प्रमुख हैं, वह इन दिनों भाजपा के ऊपरी जात के वोटबैंक में सेंध लगाने में जुटे हैं।
बसपा पूरे राज्य में ब्राह्मण सम्मेलन का आयोजन कर रही है तो समाजवादी पार्टी ने भी ब्राह्मणों को लुभाने के लिए यह वादा किया है कि राज्य में उनकी सरकार बनने पर लखनऊ में भगवान परशुराम की सबसे ऊंची प्रतिमा लगवाई जाएगी। भाजपा को लगता है कि अगर विपक्ष की इन तमाम कोशिशों से अगर उसका ऊपरी जात का थोड़ा बहुत वोट अपनी तरफ कर ली लेता है तो वह उसकी भरपाई पिछड़ा वर्ग के बीच अपनी पैठ को और मजबूत करके कर सकती है। पिछड़ा वर्ग का वोट भी ज्यादा है, इसलिए भाजपा का सारा फोकस इसी वर्ग पर है। राजनीतिक गलियारों में यह भी कहा जाता है कि राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग ने पिछड़ा वर्ग की सूची में नई जातियों को शामिल करने के लिए जो तेजी दिखाई है, वह भाजपा की मंशा को देखते हुए ही है।
विपक्ष नहीं बैठेगा शांत
अगर नई जातियों को पिछड़ा वर्ग में शामिल किए जाने का फैसला होता है तो विपक्ष भी हाथ पर हाथ रखकर बैठने वाला नहीं है। इसके लिए घमासान होना तय माना जा रहा है। जैसे ही पिछड़ा वर्ग की सूची में नई जातियां शामिल होंगी, आरक्षण सीमा बढ़ाए जाने की मांग शुरू हो जाएगी। नई जातियों के शामिल होने से पिछड़ा वर्ग की सूची में पहले से मौजूद जातियों को अपने हक में कटौती लगना शुरू हो जाएगी। उत्तर प्रदेश में पिछड़ा वर्ग की सूची में अभी 70 जातियां शामिल हैं। आरक्षण का कोटा अगर बढ़ता है तो ऊपरी जात के लोग मैदान में मोर्चा ले सकते हैं। हालांकि कुछ जातियां खुद को पिछड़ा वर्ग सूची में शामिल किए जाने के विरोध में भी आ गई हैं। कई कायस्थ नेताओं के बयान आए हैं, जिसमें उन्होंने पिछड़ा वर्ग सूची में शामिल न किए जाने की मांग उठाई है।
खैर, इस सबके बावजूद ओबीसी सूची में संशोधन विधेयक 385 बनाम शून्य मतों से पारित हो गया। अब इसे राज्यसभा में पेश किया जाना है और पूरी संभावना है कि वहां भी यह ऐसी ही आसानी से पारित हो जाएगा। इस संशोधन विधेयक पर सत्ता पक्ष और विपक्ष में जो रजामंदी दिख रही है उसके पीछे संविधान के संघात्मक ढांचे के साथ छेड़छाड़ करने के आरोपों से ज्यादा ओबीसी समुदायों के मजबूत वोट बैंक की भूमिका है। यह कितना अजीब है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष एकजुट भी वहीं होता है, जहां उन दोनों को अपने-अपने हित सधते दिखते हों।