राव को लगने लगा कि पीएम पद से उनकी विदाई का वक्त आ गया है। उन्हें पता था कि सोनिया गांधी की कृपा जिस दिन हटी, वो प्रधानमंत्री की कुर्सी से हट जाएंगे। इस डर के मारे उन्होंने फिर से आईबी को काम पर लगा दिया। सोनिया और राव के बीच तल्खियां चरम पर पहुंच गईं।
इसहफ्ते न्यूज
कांग्रेस में नेहरू-गांधी परिवार का वर्चस्व शायद ही कभी खत्म हो। एक परिवार का पर्याय बन चुकी पार्टी में गैर नेहरू-गांधी परिवार से प्रधानमंत्री बने नेताओं की स्थिति ऐसी ही रही जैसे किसी घर का नौकर। कहने को वे नेता देश संभालते रहे लेकिन यह भी सच है कि निजी जिंदगी में वे हमेशा गांधी परिवार के कृतज्ञ रहे। अगर किसी ने गांधी परिवार के समक्ष अपनी गर्दन उठाने की चाह भी रखी तो उसे न केवल नजरों से गिरा दिया गया अपितु उसकी मौत के बाद भी कांग्रेसी उनका नाम लेना गुनाह समझते हैं। ऐसे ही एक पूर्व प्रधानमंत्री रहे हैं, पीवी नरसिम्हा राव।
राव एक अव्वल दर्जे के शिक्षाविद् और कुशल राजनीतिक थे, उनके प्रधानमंत्री काल में देश ने चहुंमुखी प्रगति की। मॉर्डन इंडिया को आकार देने वाले नरसिम्हा राव को कांग्रेस में आउटसाइडर की तरह समझा जाता रहा, लेकिन वे आए और अपना काम करके चले गए। कांग्रेस में उन्हें गांधी परिवार का घोषित विरोधी माना जाता है और अगर कोई उनकी खिलाफत कर दे तो फिर यह साबित हो जाता है कि वह गांधी परिवार का वफादार है। बीते दिनों कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में पूर्व प्रधानमंत्री दिवंगत नरसिम्हा राव की वफादारी पर सवाल उठे हैं, पूर्व सांसद चिंता मोहन ने बतौर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की तारीफ में कसीदे कढ़े लेकिन उन्होंने राव के संबंध में कहा कि वे कांग्रेसी विचारधारा के प्रति वफादार नहीं थे। आखिर ऐसा क्यों?
राजीव गांधी की हत्या के बाद राव आए सामने
राव को प्रधानमंत्री बनाने वाली कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी ही थीं, राव कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे। राव के उत्थान की कथा वर्ष 1991 में तब शुरू होती है, जब राजीव गांधी की हत्या के बाद सोनिया गांधी के सामने यह यक्ष प्रश्न खड़ा हो गया था कि वे राजनीति में आएं या सास और पति के बलिदानों के मद्देनजर इससे दूर ही रहें। उन पर कांग्रेस की कमान संभालने का दबाव बन रहा था। अग्रिम मोर्चे के कांग्रेसी नेता लगातार परिवार के दो-दो सदस्यों के बलिदानों की दुहाई दे रहे थे और देश के ताजा राजनीतिक हालात का हवाला देकर उनसे पार्टी का अध्यक्ष पद तुरंत संभालने की मिन्नतें कर रहे थे। तब सोनिया गांधी ने नरसिम्हा राव से राय मांगी।
जो भी जवाब दें, अपनी बेटी समझ कर दें
नवभारत टाइम्स में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार लेखक विनय सीतापति ने अपनी पुस्तक हाफ लायन में दावा किया है कि चूंकि सोनिया गांधी ने राव से कहा था कि वो जो भी जवाब दें, यह सोचकर दें कि उनकी बेटी ने उनसे यह सवाल किया है। सीतापति के मुताबिक, राव ने सोनिया से कहा कि अगर वो उनकी बेटी के रूप में पूछ रही हैं तो उन्हें राजनीति में नहीं आना चाहिए। सोनिया ने राव की बात मानी और उन्होंने दिग्गज कांग्रेसियों के एक खेमे की मांग ठुकरा दी, जोकि चाहता था कि वे ही देश की बागडोर संभालें। सोनिया ने अपने लिए तो फैसला किया ही, कैप्टन सतीश शर्मा और पीएन हक्सर की सलाह पर अपने पथप्रदर्शक नरसिम्हा राव के भाग्य का भी फैसला कर दिया। राजीव गांधी की हत्या (21 मई, 1991) के ठीक एक महीने बाद 21 जून, 1991 को नरिसम्हा राव देश के 10वें प्रधानमंत्री बन गए।
राव सोनिया को करते थे सप्ताह में दो बार फोन
प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने सोनिया गांधी से नजदीकियां बनाए रखीं। वो सोनिया गांधी को सप्ताह में दो बार फोन करते। साथ ही, राव ने हर हफ्ते सोनिया के घर 10 जनपथ जाने की रुटीन भी बना ली। इतना ही नहीं, राव ने सोनिया को साधे रखने के लिए राजीव गांधी को देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न देने का फैसला किया और उनके नाम पर बने राजीव गांधी फाउंडेशन को सरकार की तरफ से 100 करोड़ रुपये दिए। लेकिन, 6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद का ढांचा गिरा दिया गया तो सोनिया ने अपना पहला राजनीतिक बयान जारी किया।
तब नरसिम्हा राव हुए सतर्क
सोनिया गांधी ने अपने बयान में बाबरी मस्जिद विध्वंस पर नाराजगी तो जताई, लेकिन प्रधानमंत्री राव पर कोई टिप्पणी नहीं की। फिर भी नरसिम्हा राव सतर्क हो गए और 10 जनपथ आने-जाने वालों पर नजर रखने के लिए इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) को लगा दिया। दरअसल, राव को सोनिया पर नहीं, उनके दरबारियों पर संदेह था। वो इसलिए क्योंकि उसी वर्ष राव की अध्यक्षता में संपन्न हुए कांग्रेस के तिरुपति अधिवेशन के बाद कुछ नेताओं ने सोनिया गांधी के सामने राव की चुगली करनी शुरू कर दी थी। राव को इसकी भनक लग गई थी। आईबी ने भी अपनी रिपोर्ट में राव को बताया कि 7 से 14 दिसंबर के बीच अहमद पटेल, अर्जुन सिंह, नारायण दत्त तिवारी, दिग्विजय सिंह और माधव राव सिंधिया ने सोनिया के घर जाकर मुलाकात की। आईबी ने यह भी रिपोर्ट दी कि इन नेताओं ने सोनिया के सामने इस बात पर नाराजगी प्रकट की कि बाबरी विध्वंस पर बतौर प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव की भूमिका उचित नहीं रही।
सोनिया ने बंद किया राव का फोन उठाना
अब राव सोनिया को लेकर भी सतर्क रहने लगे। फिर भी उन्होंने सोनिया को सप्ताह में दो बार फोन करने और एक बार घर जाकर बात करने का सिलसिला जारी रखा। लेकिन, 1993 का मध्य आते-आते जब सोनिया गांधी फोन उठाने में देर करने लगीं तो राव थोड़े मायूस होने लगे। सीतापति ने अपनी किताब में दावा किया है कि राव ने अपने सचिव पीवीआरके प्रसाद से कहा कि उन्हें तो बुरा नहीं लगता है, लेकिन प्रधानमंत्री को बुरा जरूर लगता है। इधर, राव के मन में सोनिया के साथ रिश्तों को लेकर उहापोह चल रहा था, इधर विपक्ष यह कहकर हमले करने लगा कि आखिर प्रधानमंत्री एक आम नागरिक को रिपोर्ट क्यों करते हैं? तब सोनिया गांधी किसी संवैधानिक पद पर नहीं थीं।
तल्खी बढ़ी तो 10 जनपथ जाना छोड़ा
एक तरफ सोनिया गांधी से उपेक्षा, दूसरी ओर विपक्ष के हमलों से एक कमजोर प्रधानमंत्री की छवि बनने के डर ने राव को अपने तौर-तरीके में बदलाव लाने को मजबूर कर दिया।
अब उन्होंने 10 जनपथ जाना छोड़ दिया। ऐसे में सोनिया गांधी के कान भरने वालों को और मौका मिल गया। तिवारी, सिंह, पटेल जैसे नेताओं की मंडली सोनिया को राव के खिलाफ भडक़ाने लगी जबकि सोनिया के पास राव का पक्ष रखने वाला कोई नहीं रहा। ऐसी परिस्थिति में सोनिया गांधी के मन में राव के प्रति कटुता बढ़ती गई जिसे मंडली ने यह कहकर हवा दी कि प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव तो राजीव गांधी हत्याकांड की जांच भी तेजी से नहीं होने दे रहे हैं।
सोनिया ने कहा तो गूंजने लगे राव हटाओ के नारे
सोनिया गांधी पर राव के खिलाफ चुगलियों का असर भी दिख गया। उन्होंने 20 अगस्त, 1995 को उत्तर प्रदेश के अमेठी में 10 हजार लोगों की सभा में कहा कि राजीव गांधी की हत्या के चार साल तीन महीने बीत जाने के बाद भी जांच पूरी नहीं हो सकी। उनके राजीव हत्या कांड की जांच धीमी होने की बात कहते ही राव विरोधियों को मौका मिल गया और राव हटाओ, सोनिया लाओ के नारे गूंजने लगे। राव को लगने लगा कि पीएम पद से उनकी विदाई का वक्त आ गया है। उन्हें पता था कि सोनिया गांधी की कृपा जिस दिन हटी, वो प्रधानमंत्री की कुर्सी से हट जाएंगे। इस डर के मारे उन्होंने फिर से आईबी को काम पर लगा दिया। सोनिया और राव के बीच तल्खियां चरम पर पहुंच गईं।
दिल्ली में नहीं करने दिया अंतिम संस्कार!
नतीजतन, 1999 के लोकसभा चुनाव में नरसिम्हा राव को टिकट नहीं मिला। उन्हें जब बीमारी ने घेरा तो कांग्रेसियों ने उनसे ऐसे मुंह मोड़ लिया। शायद ही कोई कांग्रेसी 9 मोतीलाल नेहरू मार्ग के घर में पड़े राव का हाल-चाल लेने पहुंचता था। कांग्रेसियों ने यह दूरी राव से नहीं, उनके शव से भी बरती। वर्ष 2004 में जब नरसिम्हा राव का निधन हुआ तो उनका शव कांग्रेस मुख्यालय के अंदर लाने की अनुमति नहीं मिली, यहां तक कि उनका दाह-संस्कार भी दिल्ली में नहीं किया गया। विनय सीतापति लिखते हैं कि 23 दिसंबर, 2004 को राव ने एम्स में अंतिम सांस ली और उनका शव लेकर एयरफोर्स की गाड़ी 10 जनपथ के बाहर आधे घंटे खड़ी रही। जब दरवाजा नहीं खुला तो गाड़ी हवाई अड्डे की तरफ बढ़ गई। इससे पहले, निधन के बाद नेताओं के शवों को अंतिम दर्शन और श्रद्धांजलि के लिए कांग्रेस मुख्यालय में रखे जाने की परंपरा चली आ रही थी। जानकार बताते हैं कि जब राव का शव 10 जनपथ के बाहर था तब सोनिया गांधी अंदर थीं। जिन सोनिया गांधी ने कभी राव को पीएम बनाया था, वो नाराज हुई तो उनका मरा हुआ मुंह भी नहीं देखा।