प्रश्न काल

बुद्ध का बताया मार्ग धीमा है, मुश्किलों से भरा है और धैर्य की परीक्षा भी लेता है

22 अगस्त, 2021 07:52 PM
बुद्ध एक ऐसे अद्वितीय महापुरुष हुए, जिन्होंने साधना के सारे प्रयोग अपने शरीर पर किए। फोटो साभार pixabay

 

इसहफ्ते न्यूज /विचार

बुद्ध पूर्णिमा के विशेष दिन पर 20 नवंबर, 1956 को संविधान निर्माता बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने काठमांडू में एक भाषण दिया गया था, जिसकी प्रासंगिकता आज भी है। बाबा साहेब ने उस दिन कहा था...
‘कार्लमाक्र्स और लॉर्ड बुद्ध दोनों ही गरीबों को शोषण से मुक्ति दिलाना चाहते थे। गरीब शोषण से मुक्त हो, यह दर्शन दोनों के सिद्धांत में अंतर्निहित है। जब दोनों के दर्शन का अध्ययन करते हैं तो पता चलता है कि कार्लमाक्र्स कहते हैं कि गरीबों का शोषण इसलिए होता है क्योंकि समाज में एक शोषक वर्ग है, इसलिए गरीबों का शोषण समाप्त करने के लिए इस शोषक वर्ग को समाप्त करना होगा और इसके लिए वो हिंसा उकसाने को भी अपने सिद्धांतों में सम्मिलित करते हैं। इसके विपरीत भगवान बुद्ध शांति, अहिंसा, दया और करुणा पर आधारित एक दर्शन देते हैं और गरीबों की शोषण से मुक्ति का मार्ग भी बताते हैं। शोषण से मुक्ति के मार्ग को भी वह दुख दूर करने के उपाय के रूप में ही बतलाते हैं।

मार्क्स के सिद्धांतों पर आधारित जीवन दर्शन, वस्तुत: एक अव्यावहारिक दर्शन है जो मंजिल तक नहीं पहुंचता है, अत: उस पर चलने का कोई फायदा नहीं। यदि कोई रास्ता जंगल में जाता है, अव्यवस्था की ओर बढ़ता है, तो उस पर चलने का भी कोई लाभ नहीं, जबकि इसके विपरीत बुद्ध के सिद्धांतों पर आधारित जीवन दर्शन एक स्थायी और व्यावहारिक मार्ग है, जिस पर चलकर मनुष्य अपनी मुक्ति का मार्ग भी खोज सकता है और इस दर्शन से विश्व में शांति और सहिष्णुता की स्थापना भी हो सकती है। हां, यह जरूर है कि बुद्ध का बताया हुआ मार्ग धीमा है, मुश्किलों से भरा है और धैर्य की परीक्षा भी लेता है, लेकिन अंत में आप सुरक्षित और मजबूत जमीन पर खड़े हो सकते हैं, जिससे आपके जीवन में स्थायी परिवर्तन आ जाएगा। मेरे विचार से धीमी और मुश्किल राह शॉर्टकट की दौड़ से अधिक बेहतर है।

शॉर्टकट हमेशा खतरनाक होता है। बुद्ध के सिद्धांत हिंसा की अनुमति नहीं देते हैं, जबकि साम्यवाद में हिंसा की इजाजत है। हिंसा के विषय में जब मैं अपने कम्युनिस्ट मित्रों से पूछता हूं तो वे उसका सीधा जवाब नहीं देते हैं। वे अपने सिद्धांतों को हिंसा द्वारा स्थापित करने में संकोच नहीं करते हैं, जिसे वे सर्वहारा की तानाशाही कहते हैं। इस सिद्धांत द्वारा वे लोगों को राजनीतिक अधिकार से वंचित रखते हैं। उनका विधायिका में कोई प्रतिनिधित्व नहीं होता, लोगों को वोट का अधिकार नहीं होता। जनता राज्य की द्वितीय श्रेणी की प्रजा बन जाती है। वह सत्ता की भागीदार नहीं होती बल्कि शासित होती है। जब मैंने कम्युनिस्ट मित्रों से पूछा कि जनता को शासित करने के लिए क्या तानाशाही उचित तरीका है, वे बोले हम तानाशाही पसंद नहीं करते। तब मैंने फिर पूछा, फिर आप इसकी अनुमति कैसे देते हैं?

तब वे कहते हैं, यह अंतरिम व्यवस्था है और जब मैं अंतरिम समय की अवधि पूछता हूं कि यह कितनी होगी, 20 वर्ष, 40 वर्ष, तो वे इसका कोई स्पष्ट उत्तर नहीं देते हैं। कम्युनिस्ट पार्टी के बुद्धिमान लोग यही दोहराते रहते हैं कि सर्वहारा की तानाशाही स्वत: समाप्त हो जाएगी। मुझे तानाशाही पसंद नहीं, हिंसा पसंद नहीं, मैं शांति, अहिंसा और सह-अस्तित्व में विश्वास करता हूं, इसलिए मैं भगवान बुद्ध पर आधारित शिक्षाओं को आधार मानकर बौद्ध जीवन के दर्शन के बारे में बता रहा हूं।’

डॉ अम्बेडर क्यों बौद्ध बने, इस सवाल का जवाब उनके इस भाषण से आंशिक रूप से मिलता है। दरअसल, बुद्ध एक ऐसे अद्वितीय महापुरुष हुए, जिन्होंने साधना के सारे प्रयोग अपने शरीर पर किए और बोधिसत्व प्राप्त करके सारे संसार में ज्ञान का प्रसार किया। इसलिए बौद्ध धर्म का उदय भारत में हुआ, यह पनपा भी भारत में किंतु इसका प्रचार-प्रसार पूरे संसार में हुआ। विशेष रूप से भारत के आसपास के देशों में। साधना करते-करते भगवान बुद्ध ने शरीर और वीणा की बहुत उपयुक्त व्याख्या की और सारी मानवता को संदेश दिया कि वीणा के तार यदि बहुत ज्यादा कस दिए जाएंगे तो तार टूट सकते हैं और यदि वीणा के तार ढीले छोड़ दिए जाएंगे तो तार होते हुए भी बजेंगे नहीं। इस व्याख्या द्वारा भगवान बुद्ध ने पूरी मानवता को मध्यम मार्ग का संदेश दिया जो किसी भी प्रकार की अति से बचने का संदेश देता है। यह मध्यम मार्ग पूरे संसार में तेजी के साथ फैला और लोगों ने इसे अपनी जीवनशैली के रूप में अपनाया। इसकी प्रासंगिकता आज भी यथावत बनी हुई है।

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