इसहफ्ते न्यूज. चंडीगढ़
मोदी यह भी बताना नहीं भूल रहे हैं कि सरकार कृषि कानूनों को लेकर हर उस बिंदु पर चर्चा के लिए तैयार है, जिस पर किसानों को संदेह है। लेकिन आज तक कोई भी ऐसे विशिष्ट बिंदु के साथ आगे नहीं आया है।
धान की खरीद को लेकर जैसा गतिरोध सामने आया है, वह दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा। हालांकि भाजपा की केंद्र एवं हरियाणा सरकार ने सूझबूझ से काम लेकर मामले को ठंडा कर दिया। धान की पंजाब एवं हरियाणा में जो खरीद 11 अक्तूबर से होनी थी, उसे अब रविवार यानी 3 अक्तूबर से ही करने के आदेश दे दिए गए। केंद्र सरकार के एक हफ्ते बाद खरीद के आदेश और फिर उसे वापस लेने के फैसले को गैरजरूरी कवायद ही माना जाएगा। अगर धान की फसल कट चुकी है और बिकने के लिए मंडियों में लाई जा रही है तो फिर उसे क्यों नहीं खरीदा जाना चाहिए। खैर, खरीद एजेेंसियों के भी अपने मानक हैं और उन्हीं के आधार पर यह तय किया जाता है कि कौनसी किस्म किस रेट पर और कितनी खरीदी जाएगी। किसान मंडियों में बहुत बार अपनी फसल की खरीद न होने का आरोप लगाते हैं, गेहूं की भारी उपज होने से ऐसे हालात बनते हैं कि अनाज को सडक़ों के किनारे ढेरी लगाकर रखना पड़ता है। हरियाणा में बीते वर्ष लॉकडाउन के दौरान गेहूं की खरीद व्यवस्थित तरीके से की गई थी। किसानों को सरकार की ओर से टोकन दिए गए थे, जिनके आधार पर उनका मंडियों में आने का कार्यक्रम तय किया गया था, लेकिन किसानों ने इसमें भी कोताही के आरोप लगाए थे।
किसानी का व्यापक हित देखा जाए
केंद्र सरकार ने धान की खरीद को एक हफ्ते पहले करने के आदेश देकर उचित ही किया है, देश में इस समय किसान आंदोलन के नाम पर सियासत का दौर जारी है। किसान आंदोलन की वजह से राजधानी के आसपास हालात बदतर हो गए हैं। सर्वोच्च न्यायालय सरकारों को रास्ते खुलवाने को कह रहा है और किसान हैं कि आंदोलन के नाम पर बंद का आयोजन कर जन-जीवन को अस्तव्यस्त कर रहे हैं। अब धान की खरीद में देरी को मुद्दा बनाते हुए किसानों ने हरियाणा में सरकार के खिलाफ उग्र प्रदर्शन किए। अम्बाला में गृहमंत्री अनिल विज के आवास के बाहर प्रदर्शन करते हुए बैरिकेड हटा दिए। पंचकूला और दूसरे जिलों में भी ऐसी ही तनावपूर्ण स्थिति देखने को मिली। बीते दिनों करनाल में बसताड़ा टोल पर किसानों ने हिंसक प्रदर्शन किया था, जिसमें पुलिस को कार्रवाई करनी पड़ी, इस दौरान पुलिस लाठीचार्ज से एक किसान की मौत हो गई। आखिर सरकारों को किसानों के उग्र और हिंसक होने के बाद ही यह ध्यान क्यों आता है कि मामला अब हाथों से निकलने जा रहा है और कुछ किए जाने की जरूरत है।
मनोहर लाल ने सुलझाया मसला
धान खरीद में देरी के बाद किसानों ने जब उग्र रवैया अपनाया है तो हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने केंद्रीय मंत्रियों के जरिए प्रधानमंत्री एवं गृहमंत्री तक मामले को पहुंचाया, इसके बाद तुरंत खरीद को एक हफ्ते बाद होने से रोक कर तत्काल इसे शुरू कराया गया। बेशक, केंद्र सरकार इस बात से परिचित है कि यह समय किसानों को और भडक़ाने का नहीं है, ऐसा हुआ तो यह उसके लिए और नुकसानदायक होगा। भाजपा अभी सत्ता में है लेकिन आखिर वह भी एक राजनीतिक दल ही है, जिसे जनता का समर्थन चाहिए होता है। किसान आंदोलनकारी इसी जनसमर्थन को खत्म करवाना चाहते हैं, लेकिन अगर कृषि कानूनों का मुद्दा खत्म हो जाए तो फिर किसानों के पीछे खड़े विपक्ष के पास सरकार के खिलाफ करने को कुछ रहेगा नहीं।
मोदी फिर बोले किसानी पर
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एक बयान आया है, जिसमें उन्होंने कहा है कि कृषि सुधार कानूनों का विरोध राजनीतिक धोखाधड़ी है। फिर वे यह भी कहते हैं कि ये कानून छोटे किसानों की भलाई के लिए हैं, यह जरूरी नहीं है कि ये सबको रास आएं। हालांकि मोदी यह भी बताना नहीं भूल रहे हैं कि सरकार कृषि कानूनों को लेकर हर उस बिंदु पर चर्चा के लिए तैयार है, जिस पर किसानों को संदेह है। लेकिन आज तक कोई भी ऐसे विशिष्ट बिंदु के साथ आगे नहीं आया है। वे यह भी कहते हैं कि घबराए हुए लोग सरकार के फैसलों का विरोध कर रहे हैं। किसानों से बातचीत का जहां तक मसला है तो प्रधानमंत्री के बयानों में सच्चाई दिखती है, क्योंकि दर्जनों बार किसान संगठनों से केंद्र की बातचीत हो चुकी है, सरकार कृषि को एक उद्योग बनाना चाहती है, जिसके जरिए प्रत्येक किसान और उससे जुड़े व्यक्ति को फायदा हो, लेकिन किसान अभी भी परंपरागत तरीके से ही खेती करना चाहते हैं और सरकार से इसकी उम्मीद रखते हैं कि वह उनकी फसल को एमएसपी पर खरीदे। ज्यादातर किसानों को खेती के बूते समृद्धि मिली है, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड जैसे राज्यों में किसानों ने तरक्की की है, लेकिन अभी भी बहुत से ऐसे किसान हैं जोकि संघर्षपूर्ण जीवन जी रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी इन्हीं छोटे किसानों की बात कर रहे हैं, इनकी भलाई के लिए ही इन कृषि कानूनों को लाने की जरूरत समझाई जा रही है। हालांकि आशंकाएं ऐसी पैदा कर दी गई हैं कि इन कानूनों के जरिए खेती-किसानी में कंपनी रूल लाया जा रहा है।
कहीं विपक्ष को इसकी आशंका तो नहीं
किसान आंदोलन से तमाम कृषि विशेषज्ञ और कानूनी राय रखने वाले लोग भी जुड़े हैं, उनके द्वारा कानूनों की जो व्याख्या की जा रही है, उसमें ये कानून पूरी तरह से किसानों के खिलाफ हैं। मामला यहीं से बिगड़ जाता है, कांग्रेस के वे नेता जोकि एक समय कृषि में सुधार के लिए सुझाव दे रहे थे, उन्होंने भी कृषि को बाजार से जोडऩे का सुझाव दिया था। तब आज वही काम अगर भाजपा की केंद्र सरकार कर रही है तो उन्हें क्यों परेशानी हो रही है। कुछ कमी-पेशी हो सकती है, कुछ संशय हो सकते हैं, जोकि कृषि कानूनों को लेकर हैं, लेकिन जब केंद्र बातचीत को तैयार है तो फिर किसान क्यों इन कानूनों को पूरी तरह खत्म करने की ही रट लगाए हुए हैं। कहीं ऐसी मंशा तो नहीं है कि इन कानूनों के लागू होने से देश में कृषि में जो परिवर्तन आएगा, उसका श्रेय एक राजनीतिक दल को मिलने से रोकने के लिए विपक्ष ऐसा कर रहा हो। केंद्र सरकार को चाहिए कि वह इन कानूनों का स्वरूप ज्यादा से ज्यादा किसानों के हित वाला बनाए, कृषि भारत की पहचान भी है, उसका मूल स्वरूप नहीं बदला जाना चाहिए। अगर इन कानूनों में सकारात्मक बदलाव जिसे किसान चाहते हैं, हो जाएगा तो यह देश के व्यापक हित में ही होगा।