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अखबारों की सुर्खियां ग्रामीणों के वे तौर-तरीके खूब बनते थे, जब वे बाहरी लोगों को गांव में प्रवेश करने से पहले उसके हाथ सेनेटाइज कराते थे और उसके आने के संबंध में पूरी पड़ताल करते थे। अनेक बार तो ऐसे आगंतुकों को गांव की सीमा से ही वापस भेज दिया जाता था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपनी मन की बात कार्यक्रम में ग्रामीणों की कोरोना की रोकथाम के लिए इस अपनाई जाने वाली प्रतिबद्धता का जिक्र किया था। हालांकि जैसे शहरी लापरवाह हुए, वैसे ही ग्रामीण भी हो गए। इस वर्ष कोरोना संक्रमण जब पूरे देश में कोहराम मचा रहा है तो देश के गांव भी इस महामारी से अछूते नहीं रहे हैं।
यह कैसी विडम्बना है कि हरियाणा, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हिमाचल प्रदेश आदि के जिन गांवों को हम ग्रामीणों के लिए सुरक्षित समझ रहे थे, आज वे ही कोरोना से मारे गए लोगों के परिजनों की चित्कार से गूंज रहे हैं। हालात ऐसे हैं कि गांवों के हर घर में कोई न कोई बुखार, खांसी आदि से पीडि़त है, अनेक घरों में बड़े-बुजुर्गों की मौतें हो चुकी हैं। इन गांवों में इलाज के नाम पर अभी तक झोला छाप डॉक्टर ही अपनी कारस्तानी दिखा रहे हैं। ग्रामीणों के समय पर टेस्ट न होने से कोरोना की पहचान भी नहीं हो पा रही और उसके मुताबिक इलाज भी संभव नहीं हो पा रहा। स्थिति देखिए कि गांव में अगर किसी की मौत हो भी जाती है तो परिजन इसे कोरेाना से हुई मौत न मानकर सामान्य मौत ही बताते हैं और फिर अगर यह मौत किसी बड़े-बुजुर्ग की हुई है तो फिर उसकी तेहरवीं जैसे कार्यक्रम पर परंपरागत भोज का आयोजन भी किया जा रहा है। ऐसे में कोरोना का संक्रमण आगे फैल रहा है।
ऐसी रिपोर्ट हैं कि हरियाणा के अनेक गांवों में दर्जनों लोगों की मौतें कोरोना से हो चुकी हैं। भिवानी के मुंढाल में एक सप्ताह के अंदर 25 लोगों की मौत हो चुकी है, वहीं रोहतक के टिटौली गांव में भी दो ग्रामीण संक्रमण से मारे गए। जिले में 13 ऐसे गांव हैं, जहां मौत के आंकड़े बढ़े हैं। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश के दूरदराज के जिलों एवं गांवों में भी निरंतर कोरोना संक्रमितों की संख्या बढ़ रही है। जरा विडम्बना तो देखिए कि जिन गांवों में आजादी के 73 वर्षों बाद भी एक ढंग की डिस्पेंसरी नहीं खुली है, वहां कोरोना जैसी जानलेवा और वैश्विक महामारी पहुंच चुकी है। पेट में दर्द होने पर भी जो पूरी रात अगले दिन की पौ फटने और फिर शहर जाकर दवा लेने का इंतजार करते हैं, उन लोगों को कोरोना महामारी से कैसे बचाया जाएगा।
आखिर शहर के लोगों के लिए ही अगर ऑक्सीजन कम पड़ रही है तो फिर ग्रामीण जोकि अभी तक अपार प्राकृतिक ऑक्सीजन के साथ जीते आए हैं, को कौन मेडिकल ऑक्सीजन मुहैया कराएगा। उन ग्रामीणों की बेबसी आज कौन सी सरकार समझेगी, जोकि हर पांच वर्ष बाद इस उम्मीद में वोट डाल कर लौट आते हैं कि अब उनके गांवों की तस्वीर बदलेगी। अनेक वर्षों के इंतजार के बाद एक सिंगल सडक़ बनने की खुशी में झुमने वाले ग्रामीण जब मंत्री, विधायक, सांसद से अपने यहां डिस्पेंसरी की मांग कर देते हैं, तो यह उनका गुनाह ही समझा जाता है।
यह सच है कि सरकारों ने अभी तक गांवों पर ध्यान नहीं दिया है, बेशक कहीं-कहीं वैक्सीनेशन का कार्य जारी है। लेकिन ग्रामीणों के टेस्ट कराने और उनके कोरोना पॉजिटिव होने के संबंध में पुष्टि की जरूरत अभी तक नहीं समझी गई थी। हरियाणा में तो अब आठ हजार टीमें बनाई गई हैं, जोकि घर-घर जाकर संक्रमितों की तलाश करेंगी। सरकार की ओर से तय किया गया है कि ऐसे मरीजों का गांव में स्थित सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में इलाज किया जाएगा। गंभीर मरीजों को शहर में स्थित कोविड अस्पतालों में भर्ती कराया जाएगा। जाहिर है, यह सरकार का सही लेकिन देर से उठाया गया कदम है। आज के समय की सबसे पहली प्राथमिकता कोरोना से लडऩा है। ऐसे में बीते वर्ष से ही सरकार को इसकी तैयारी जारी रखनी चाहिए थी। अब विपक्ष इसे मुद्दा बना चुका है, कांग्रेस के राज्यसभा सांसद दीपेंद्र हुड्डा का आरोप है कि कोरोना की दूसरी लहर का मुकाबला करने में राज्य सरकार पूरी तरह नाकाम रही। अगर सरकार ने इसकी तैयारी की होती तो आज इतने बड़े पैमाने पर लोगों को जान नहीं गंवानी पड़ती।
इनेलो नेता अभय चौटाला ने भी कहा है कि सरकार की ओर से कोविड से बचने के लिए किए गए उपाय नाकाफी हैं। वैसे विपक्षी राजनीतिक दलों को इस आपदा की घड़ी में अपने लिए संभावनाएं नजर आ रही हैं, लेकिन अगर आम जनता की पीड़ा को समझें तो ये आरोप जन-जन के हैं, प्रत्येक राज्य में सरकार पर यह सवाल उठ रहे हैं। वैसे ऐसे आरोप क्यों न लगें और क्यों न सरकारों की शिकायत अदालतों से हो। यह सवाल लोगों को मथ रहा है कि आखिर पांच वर्ष एक राजनीतिक दल को अगर सत्ता सौंपी जाती है तो वह इन वर्षों में क्या करता है? क्या कोरोना महामारी ने इस सच्चाई को उद्घाटित नहीं कर दिया है कि सरकारों के पास ऐसी महामारी से लडऩे की कोई रणनीति नहीं थी। भविष्य में अगर कोरोना से भी घातक महामारी फैली तो किस प्रकार जीवन बच पाएगा।
भारत में गांव और शहर के बीच खाई बहुत गहरी है। गांव सरकारों की प्राथमिकता में केवल तभी दिखते हैं, जब ग्रामीणों के वोट लेने होते हैं। गांव ही वह जगह हैं, जहां फसल उगती हैं और उससे देश की अर्थव्यवस्था को बल मिलता है। हालांकि गांवों को इस उपकार के बदले मिलता क्या है? ज्यादातर गांवों में दसवीं-बाहरवीं के स्कूल हैं, जहां से पढऩे के बाद विद्यार्थियों को शहर में भागना पड़ता है। गांवों में न कायदे से आंगनवाड़ी संचालित होती हैं और न ही अस्पताल या डिस्पेंसरी। सरकार जिन सामुदायिक केंद्रों की बात करती है, वह सुविधा भी बहुत कम खुशनसीब गांवों को मिलती है। ऐसे में ग्रामीण अगर सामान्य बीमारियों से बगैर इलाज के जूझने को बाध्य हैं तो अब कोरोना जैसी महामारी से वे कैसे अपना बचाव करें।
रोजगार के लिए शहर गए लोग लौटते वक्त अपने साथ कोरोना ले आते हैं और ग्रामीणों की एक-दूसरे से मिलने-जुलने की सरलता बाकियों को भी इस महामारी का शिकार बना देती है। हालांकि ग्रामीण अब अगर खुद को आईसोलेट कर रहे हैं तो इसके लिए उनकी तारीफ होनी चाहिए। गांवों में सेल्फ लॉकडाउन लगाया जा रहा है। गांवों को अपने यहां स्थिति खराब होने से रोकने के लिए भरपूर प्रयास करने ही होंगे। पंचायतें अपने आप में एक सरकार है, वहीं सरकारों को भी शहर और गांव दोनों को समान रूप से अहमियत देनी होगी। यह कार्य युद्ध स्तर होना चाहिए।