इसहफ्ते न्यूज/एजेंसी
अफगानिस्तान में पिछले दो दशक से भी ज्यादा समय से भारत की ओर से जैसी विकासपरक गतिविधियां अंजाम दी जा रही थी, उसके बाद से पाकिस्तान और उसके मित्र चीन का परेशान होना लाजिमी था, लेकिन अब जब तालिबान ने अफगानिस्तान में अपना झंडा बुलंद कर दिया है तो पाकिस्तान और उसके मित्र चीन का गदगद होना प्राकृतिक बात है। यह भी सामने आ चुका है कि अफगानिस्तान के अंदर चीन, रूस, तुर्की और पाकिस्तान ने तो अपने दूतावासों में भी पहले की तरह काम जारी रखा हुआ है। आखिर यह क्या संदेश देता है?
पूरा विश्व यह जानने को बेताब है कि आखिर अफगानिस्तान में अब क्या होने वाला है। हालांकि अमेरिका को खदेड़ कर सत्ता को हथिया चुके तालिबान के तौर-तरीके किसी को समझ नहीं आ रहे। तालिबान के कुछ नेता भारत के संबंध में जैसे बयान देते हैं, उनके उलट ही जल्द कुछ सुनाई दे जाता है। अब तो ऐसा भी होने जा रहा है कि सभी प्रांतों में कब्जे का दावा करने के बाद तालिबान ने सरकार के गठन का दावा किया है। उसकी ओर से चीन, पाकिस्तान, रूस, ईरान, कतर और तुर्की को सरकार गठन के कार्यक्रम के लिए न्योता भी भेज दिया गया है, लेकिन इन देशों की श्रेणी में भारत कहीं शामिल नहीं किया गया है।
एक तरफ तालिबान के नेता यह कहते नहीं रूक रहे कि भारत के साथ उसके संबंध अच्छे रहेंगे, लेकिन फिर तुरंत ही कश्मीर में मुसलमानों के समर्थन में खड़े होने का तालिबानी ऐलान कर देते हैं। आखिर भारत के साथ तालिबान निभा भी कैसे सकता है, जब उसका मास्टरमाइंड देश पाकिस्तान, भारत का दुश्मन हो। अफगानिस्तान में पिछले दो दशक से भी ज्यादा समय से भारत की ओर से जैसी विकासपरक गतिविधियां अंजाम दी जा रही थी, उसके बाद से पाकिस्तान और उसके मित्र चीन का परेशान होना लाजिमी था, लेकिन अब जब तालिबान ने अफगानिस्तान में अपना झंडा बुलंद कर दिया है तो पाकिस्तान और उसके मित्र चीन का गदगद होना प्राकृतिक बात है। यह भी सामने आ चुका है कि अफगानिस्तान के अंदर चीन, रूस, तुर्की और पाकिस्तान ने तो अपने दूतावासों में भी पहले की तरह काम जारी रखा हुआ है। आखिर यह क्या संदेश देता है?
वैसे, अफगानिस्तान में तालिबान के सरकार गठन के दावे कितने वाजिब हैं, यह देश के अंदर चल रहे नरसंहार की खबरों से मालूम हो जाता है। दुनियाभर का मीडिया अब अफगानिस्तान में पैर रखते हुए कांप रहा है, जिन देशों के साथ तालिबान के अच्छे रिश्ते हैं, वहां का मीडिया सच दिखाने से आनाकानी कर रहा है। तालिबान का खौफ हर उस शख्स पर कायम हो चुका है, जोकि अफगानिस्तान में इस समय जिंदा है। तालिबान घर-घर से उन लोगों को पकड़ कर सामने ला रहा है जोकि कभी उसके खिलाफ थे और जिन्होंने अमेरिका का समर्थन किया था। जाहिर है, यह बेहद खौफनाक मंजर है।
दुनिया में अपनी छवि सुधारने की जुगत भी एकतरफ हो रही है और अपने खूनी मंसूबों को भी तालिबान पूरा करने की फिराक में है। ऐसे में उसके सहयोगी भी वही देश बन रहे हैं, जोकि खुद लोकतंत्र का दम घोटने के लिए कुख्यात हैं। पाकिस्तान, चीन, तुर्की और रूस भी अपने नागरिकों के प्रति सख्ती के लिए प्रसिद्ध हैं, जैसी आजादी और कानून का शासन भारत में है, उसकी किसी भी तरह से बराबरी नहीं हो सकती। ऐसे में भारतीय सोच के समकक्ष खड़ा न होने की क्षमता की वजह से तालिबान ने उससे दूरी कायम करना ही ज्यादा उचित समझा है। हालांकि यह सच है कि भारत जोकि खुद आतंकवाद से लड़ाई लड़ता आया है, इस समय बेशक अफगानिस्तान की जनता के वास्ते तालिबान से बातचीत गवारा करे लेकिन यह तय है कि तालिबान के शासन को भारतीय सहमति नहीं मिलेगी।
अब यह बात पुष्ट हो गई है कि अफगानिस्तान में तालिबान के साथ और किसकी चलेगी। अफगानिस्तान में आजकल पाकिस्तान और चीन के राजनयिकों के दौरे बढ़ गए हैं, चीन पहले ही भारत पर नजर रखकर अफगानिस्तान में अपने जड़ें फैलाने की फिराक में है। वहीं पाकिस्तान के हुक्मरान भी लार टपकाए हुए अफगानिस्तान के जरिए अपने भविष्य को सुनहरी देख रहे हैं। पाक के एक बड़बोले मंत्री का यह बयान तो मीडिया में वायरल हो चुका है कि अफगानिस्तान में पाकिस्तान की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता। तालिबान अगर पाकिस्तान को साइडलाइन करके चलने की कोशिश करेगा तो यह उसके लिए फायदेमंद नहीं रहेगा। वैसे भी, तालिबान के अंदर कई गुट हैं, जोकि अलग-अलग समय पर अलग-अलग बात कहते हैं। यह दुनिया को गुमराह करने की साजिश भी हो सकती है।
गौरतलब है कि चीन ने दावा किया है कि अफगान उसका सबसे महत्वपूर्ण साझेदार है और वहअफगानिस्तान के पुनर्निर्माण और तांबे के उसके समृद्ध भंडार का दोहन करने के लिए काम करना चाहता है। इस समय अफगानिस्तान को जहां आर्थिक ताकत चाहिए वहीं सत्ता के भूखे तालिबान को अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए ऐसे देशों की मदद चाहिए होगी जोकि उसके इशारों पर चलें वहीं वह उनके इशारों पर कुछ भी अंजाम दे सके। अफगानिस्तान का यह दुर्भाग्य ही है कि बंदूक और गोला-बारूद के बल पर लोगों पर राज करने की चाहत वाले तालिबान के शिकंजे में वह है। ऐसे में उसके पास कोई पसंद नहीं है, जोकि उसके सामने होगा, उसे उसी को स्वीकार करना होगा। फिर बंदूक के बल पर राज करने वाला किस प्रकार शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार, उद्यम, सुरक्षा और जीवन की अन्य मूलभूत सुविधाओं को प्रदान कर सकता है। वह तो वही चाहेगा जिसमें उसका नुकसान न होता हो।
खैर, इस पर वैश्विक चिंतन जारी है, लेकिन भारत के संदर्भ में अफगानिस्तान की विदेश नीति ज्यादा मायने रखेगी। अगर अभी से तालिबान भारत की उपेक्षा कर रहा है तो इसका अर्थ है कि उसके इरादे सही नहीं हैं। इसमें कोई ताज्जुब होना भी नहीं चाहिए। यह विडम्बना ही थी कि अमेरिका जहां अफगान भूमि पर आतंकवाद के खिलाफ छदम लड़ाई लड़ रहा था, वहीं भारत अफगानिस्तान के साथ अपने सदियों पुराने संबंधों के आधार पर वहां रोड, बांध,अस्पताल, स्कूल और अन्य विकास कार्य करवा रहा था। दरअसल, तालिबान के वर्चस्व से दुनियाभर में आतंकवाद के खिलाफ जंग कुंद पड़ती दिख रही है। भारत आजादी के बाद से पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद को झेल रहा है, अब अफगानिस्तान में जब आतंक की नई फसल पूरे यौवन में खड़ी हो चुकी है, तब इसका प्रभाव भारत पर पडऩा लाजिमी है। ऐसे में भारत को सावधानी से चलना होगा और एशिया के लिए संकट बने इस घटनाक्रम पर नजर रखनी होगी।