धर्म

श्रीकृष्ण संपूर्ण हैं, तेजोमय हैं, ब्रह्म हैं, ज्ञान हैं, सुविचार के साथ हैं

जन्माष्टमी के अवसर पर हमें उनकी शिक्षाओं एवं जीवनसूत्रों को अपने जीवन में अपनाना चाहिए

30 अगस्त, 2021 12:37 PM
श्रीकृष्ण का चरित्र एक लोकनायक का चरित्र है - फोटो साभार pixabay

इसहफ्ते /धर्म

भगवान श्रीकृष्ण के संबंध में विचार ऐसी अनुभूति है, जोकि हमें ऐसे संसार के पार ले जाती है, जहां सुख, सौंदर्य, सदाचार, सहानुभूति, समर्पण, संस्कार, संस्कृति, संकल्प, सेवा, सत्य, संबंध, सत्कार और सुव्यवस्था का ऐसा सुदृढ़ संजोग है जो मानवमात्र को जीवन-मरण के चक्रों से बाहर ले जाता है। आज जन्माष्टमी के अवसर पर जब विश्व योगीपुरुष श्रीकृष्ण का वंदन कर रहा है तो आवश्यकता मंदिरों में उनके पूजन की ही नहीं है, अपितु आचार-विचार और जीवन में उनके कार्यों, संकल्पों और उनकी श्रेष्ठता पर चिंतन करने का भी है। वास्तव में श्रीकृष्ण हर सद् और हर सुविचार के साथ हैं, जहां भी इनकी उपस्थिति होगी, वहीं वे होंगे।

श्रीकृष्ण हैं संपूर्ण
दरअसल, श्रीकृष्ण में वह सब कुछ है जो मानव में है और मानव में नहीं भी है। वे संपूर्ण हैं, तेजोमय हैं, ब्रह्म हैं, ज्ञान हैं। इसी अमर ज्ञान की बदौलत उनके जीवन प्रसंगों और गीता के आधार पर कई ऐसे नियमों एवं जीवन सूत्रों को प्रतिपादित किया गया है, जो कलयुग में भी लागू होते हैं। जो छल और कपट से भरे इस युग में धर्म के अनुसार किस प्रकार आचरण करना चाहिए, किस प्रकार के व्यवहार से हम दूसरों को नुकसान न पहुंचाते हुए अपना कल्याण करें, इस तरह की सीख देते हैं। जन्माष्टमी के अवसर पर हमें उनकी शिक्षाओं एवं जीवनसूत्रों को अपने जीवन में अपनाना चाहिए।

श्रीकृष्ण एक, रूप अनेक
भगवान श्रीकृष्ण का चरित्र अत्यन्त दिव्य है। हर कोई उनकी ओर खिंचा चला जाता है। जो सबको अपनी ओर आकर्षित करे, भक्ति का मार्ग प्रशस्त करे, भक्तों के पाप दूर करे, वही श्रीकृष्ण है। वे एक ऐसा आदर्श चरित्र  हैं जो अर्जुन की मानसिक व्यथा का निदान करते समय एक मनोवैज्ञानिक, कंस जैसे असुर का संहार करते हुए एक धर्मावतार, स्वार्थ पोषित राजनीति का प्रतिकार करते हुए एक आदर्श राजनीतिज्ञ, विश्व मोहिनी बंसी बजैया के रूप में सर्वश्रेष्ठ संगीतज्ञ, बृजवासियों के समक्ष प्रेमावतार, सुदामा के समक्ष एक आदर्श मित्र, सुदर्शन चक्रधारी के रूप में एक योद्धा व सामाजिक क्रान्ति के प्रणेता हैं। उनके जीवन की छोटी से छोटी घटना से यह सिद्ध होता है कि वे सर्वैश्वर्य सम्पन्न हैं। वे धर्म की साक्षात मूर्ति हैं, उनका वंदन यह धरा सदैव करती रहेगी।

श्रीकृष्ण हैं कर्तव्य
श्रीकृष्ण का चरित्र एक लोकनायक का चरित्र है। वह द्वारिकाधीश भी हैं किंतु कभी उन्हें राजा श्रीकृष्ण के रूप में संबोधित नहीं किया जाता। वे तो ब्रजनंदन हैं। समाज व्यवस्था उनके लिये कर्तव्य थी, इसलिये कर्तव्य से कभी पलायन नहीं किया तो धर्म उनकी आत्मनिष्ठा बना, इसलिये उसे कभी नकारा नहीं। वे प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों की संयोजना में सचेतन बने रहे। वास्तव में श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व भारतीय इतिहास के लिये ही नहीं, विश्व इतिहास के लिये भी अलौकिक एवं आकर्षक व्यक्तित्व है। उन्होंने विश्व के मानव मात्र के कल्याण के लिये अपने जन्म से लेकर निर्वाणपर्यन्त अपनी सरस एवं मोहक लीलाओं तथा परम पावन उपदेशों से अन्त: एवं बाह्य दृष्टि द्वारा जो अमूल्य शिक्षण दिया था, वह किसी वाणी अथवा लेखनी की वर्णनीय शक्ति एवं मन की कल्पना की सीमा में नहीं आ सकता।

जैसी भावना, वैसे श्रीकृष्ण
श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व एवं कृतित्व बहुआयामी एवं बहुरंगी है, यानी बुद्धिमत्ता, चातुर्य, युद्धनीति, आकर्षण, प्रेमभाव, गुरुत्व, सुख-दुख और न जाने और क्या-क्या। एक भगत के लिए श्रीकृष्ण भगवान तो हैं ही, साथ में वे जीवन जीने की कला भी सिखाते हैं। एक ओर वे राजनीति के ज्ञाता, तो दूसरी ओर दर्शन के प्रकांड पंडित हैं। धार्मिक जगत में भी नेतृत्व करते हुए ज्ञान-कर्म-भक्ति का समन्वयवादी धर्म उन्होंने प्रदर्शित किया। अपनी योग्यताओं के बल पर वे युगपुरुष हुए, जो आगे चलकर युवावतार के रूप में स्वीकृत किए गए। उन्हें हम एक महान क्रांतिकारी नायक के रूप में स्मरण करते हैं। वे दार्शनिक, चिंतक, गीता के माध्यम से कर्म और सांख्य योग के संदेशवाहक और महाभारत युद्ध के नीति निर्देशक थे, किंतु सरल-निश्छल ब्रजवासियों के लिए तो वह रास रचैया, माखन चोर, गोपियों की मटकी फोडऩे वाले नटखट कन्हैया और गोपियों के चितचोर थे। गीता में इसी की भावाभिव्यक्ति है- हे अर्जुन! जो भगत मुझे जिस भावना से भजता है मैं भी उसको उसी प्रकार से भजता हूं।

अनुकरणीय पक्ष पर हो ध्यान
महाभारत का युद्ध तो लगातार चलने वाली जंग का चरम था, जिसे श्रीकृष्ण ने जन्मते ही शुरू कर दिया था। हर युग का समाज हमारे सामने कुछ सवाल रखता है। श्रीकृष्ण ने उन्हीं सवालों के जवाब दिए और तारनहार बने। आज भी लगभग वही सवाल हमारे सामने मुंह खोले हैं। ऐसे में जरूरी हो जाता है कि श्रीकृष्ण के चकाचौंध करने वाले वंदनीय पक्ष की जगह अनुकरणीय पक्ष की ओर ध्यान दिया जाए ताकि फिर इन्हीं जटिलता के चक्रव्यूह से समाज को निकाला जा सके। उनका सम्पूर्ण व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व धार्मिक इतिहास का एक अमिट आलेख बन चुका है। उनकी संतुलित एवं समरसता की भावना ने उन्हें ग्वालों, समाज के निचले दर्जे पर रहने वाले लोगों, उपेक्षा के शिकार विकलांगों का प्रिय बनाया।

 

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