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केंद्र सरकार की ओर से एक्साइज ड्यूटी घटाने के फैसले को सही लेकिन देर से उठाया गया कदम बताया जाना चाहिए। उम्मीद तो यही की जा रही थी कि सरकार 100 के डरावने आंकड़े तक पहुंचने से पहले ही पेट्रो पदार्थों के रेट में कमी लाती और सुरसा बन चुकी महंगाई को वहीं मात देती।
राजनीति में क्या संभव नहीं है, जरूरत सिर्फ इच्छाशक्ति की होती है। विभिन्न राज्यों में उपचुनाव में शिकस्त के दूसरे ही दिन केंद्र सरकार को यह स्मरण हो आया कि महंगाई हद से ज्यादा बढ़ गई है। चिंता इसकी हुई कि लोग दिवाली कैसे मनाएंगे। इसके तुरंत बाद पेट्रोल और डीजल पर एक्साइज ड्यूटी को क्रमश: 5 और 10 रुपये कम कर दिया गया। अब भाजपा शासित एवं कांग्रेस-गैर कांग्रेसी राज्य सरकारों ने भी अपने यहां एक्साइज ड्यूटी को घटा दिया है। वित्त मंत्रालय ने स्वीकार किया है कि देश में पेट्रो उत्पादों के महंगा होने से महंगाई की स्थिति चुनौतीपूर्ण हो गई थी। कहा गया है कि पेट्रो पदार्थों के दाम घटने से महंगाई पर काबू पाया जा सकेगा।
पहली बार रेट 100 के पार हुए
ऐसा पहली बार हुआ है, जब देश में एक लीटर पेट्रोल की कीमत 100 रुपये को पार कर गई है। पेट्रोल और डीजल आम और खास दोनों वर्गों के लिए एक आवश्यक पदार्थ है, आखिर ऐसी कौनसी सेवा या वर्ग है, जोकि इनसे इतर रह सकता है। ऐसे में इनके दाम में बढ़ोतरी न केवल महंगाई को बढ़ाती है अपितु तमाम सेवाओं के दाम भी ऊपर जाते हैं। तब केंद्र सरकार की ओर से एक्साइज ड्यूटी घटाने के फैसले को सही लेकिन देर से उठाया गया कदम बताया जाना चाहिए। उम्मीद तो यही की जा रही थी कि सरकार 100 के डरावने आंकड़े तक पहुंचने से पहले ही पेट्रो पदार्थों के रेट में कमी लाती और सुरसा बन चुकी महंगाई को वहीं मात देती।
राज्यों को भी पेट्रो पदार्थों से मोटी कमाई
विपक्षी राजनीतिक दलों ने इस अवसर पर भी केंद्र सरकार की आलोचना करने का अवसर तलाश लिया है। रेट कम न हों, तब आलोचना और अगर रेट कम कर दिए जाएं तो भी आलोचना। पेट्रोल और डीजल की कीमतों से राज्य सरकारों को भी भारी कमाई होती है, यह बात भाजपा शासित राज्य सरकारें भी जानती हैं और कांग्रेस व अन्य दलों की सरकारें भी। केंद्र अगर एक्साइज ड्यूटी कम न करे तो उनके सामने यह बहाना होता है कि हम क्या करें, केंद्र की पेट्रोलियम एजेंसियों ही ऐसा नहीं कर रही। हालांकि वे खुद भी एक्साइज ड्यूटी को घटा कर अपने यहां की जनता को राहत दे सकती हैं। ऐसे में विपक्षी राजनीतिक दलों का दोहरा चेहरा सामने आता है। कोरोना काल में देश में संसाधनों पर अतिरिक्त व्यय हो रहा है, पेट्रोल और डीजल ऐसे पदार्थ हैं, जिनका उपभोग नियमित है, तब इनकी कीमतों को बढ़ाकर राज्य एवं केंद्र सरकार अपने खजाने भर रही हैं तो यह एक मजबूरी भी है।
रेट बढ़े तो महंगाई बन गई सुरसा
बेशक, एक सरकार के पास अगर फंड नहीं होगा तो पूरा सिस्टम ठप हो जाएगा और अराजकता का माहौल कायम हो जाएगा। अपने संसाधनों को बढ़ाने के लिए सरकार की ओर से ऐसे कदम उठाने ही पड़ेंगे, लेकिन जनता इस बात को समझ कर भी नहीं समझना चाहती जोकि प्राकृतिक है। हिमाचल समेत दूसरे राज्यों में उपचुनाव में भाजपा को हार मिली है। हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने तो हार का ठीकरा महंगाई के नाम फोड़ दिया। अब अगले वर्ष पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, भाजपा इतनी महंगाई करके अगर जनता के समक्ष गई तो उसके लिए जवाब देना मुश्किल होगा, क्योंकि राष्ट्रवाद, राममंदिर, अनुच्छेद 370 का खात्मा, आतंकवाद पर प्रहार आदि सब अपनी जगह स्वीकार है, लेकिन दमघोटने वाली महंगाई से हर कोई बिलबिला जाता है, जेब में पैसा पहले ही कम हो गया है और ऊपर से पेट्रोल-डीजल के रेट अगर सेंसेक्स की भांति रिकॉर्ड ऊपर ही ऊपर चढ़ते दिखें तो जनता सबक सिखाने की सोचती ही सोचती है।
क्यों बढ़ गए एकाएक रेट
वैसे, यह भी विचार की बात है कि आखिर पेट्रो पदार्थों के दामों में इतनी बढ़ोतरी एकाएक क्योंकर हो गई। अगर कोरोना महामारी न आई होती तो क्या तब भी कीमतें यूं ही बढ़ती? हो सकता है, तब ऐसा न हुआ होता। भारत वह देश है, जिसने तमाम चुनौतियों के बीच आगे बढऩे का साहस किया है, कोरोना महामारी ने देश को बहुत दंश दिया है, बावजूद इसके यह 130 करोड़ लोगों की सामूहिक ताकत का परिचय है कि कोरोना अब हार चुका है। यह हार उस वैक्सीन ने भी दी है, जिसका एक टीका प्रत्येक को लग चुका है। केंद्र सरकार ने इस वैक्सीन को प्रत्येक को मुफ्त में लगाया है। एक कल्याणकारी राज्य का धर्म अपने नागरिकों की रक्षा करना है, लेकिन अगर सबकुछ मुफ्त हो जाएगा तो देश नहीं चल पाएगा।
देश बचे मुफ्तखोरी से
देश को मुफ्तखोरी से बचना चाहिए और टीकों की कीमत न सही लेकिन किसी जरिए तो देश को कुछ कीमत अदा करनी ही चाहिए। राज्यों में मतदाताओं को लुभाने के लिए अनेक राजनीतिक दल मुफ्त चीजें बांटने, मुफ्त बिजली-पानी देने और मुफ्त लैपटॉप, फोन और स्कूटी देने का प्रलोभन देते हैं। ऐसे लुभावने वादे करके जो राजनीतिक दल सत्ता में आएगा, वह किस प्रकार सरकार को चलाएगा, अपने बैंक खाते से तो कोई मुख्यमंत्री रोड बनवाएगा नहीं, न ही अस्पताल बनवाएगा और न ही मंदिर। यह पैसा वही होता है, जिसे जनता कर के रूप में सरकारी खजाने में जमा करती है और पेट्रोल-डीजल, रसोई गैस आदि के जरिए आम आदमी से जिसकी वसूली होती है। सरकारों को भी चाहिए कि वे अपने खर्च को कम करें, यह रहस्यमयी है कि सांसदों, मंत्रियों, विधायकों आदि पर हर माह अरबों रुपये व्यय होते हैं, जिनमें से ज्यादातर उनकी सुरक्षा के नाम पर खर्च किया जाता है, हालांकि यह सुरक्षा सिर्फ नाक ऊंची रखने के लिए होती है।
सरकार ने दिया राहत पैकेज
वैसे, मोदी सरकार ने लॉकडाउन के बाद अर्थव्यवस्था को जीवन प्रदान करने के लिए अनेक घोषणाएं की हैं, सरकार ने 2 लाख करोड़ से अधिक का राहत पैकेज घोषित किया था, इसके अलावा दिवाली तक 80 करोड़ जनता को निशुल्क
अनाज बांटा गया है। इन सब के लिए सरकार को एक बड़े फंड की जरूरत थी और इसकी पूर्ति पेट्रोल और डीजल पर टैक्स लगा की गई। संभव है, अगले कुछ दिनों में पेट्रो पदार्थों पर एक्साइज ड्यूटी और कम हो और यह साल के आखिर तक 100 से नीचे ही बनी रहे। हालांकि केंद्र सरकार को महंगाई की समस्या का समाधान करना ही होगा, देश की अर्थव्यवस्था की मजबूती भी जरूरी है लेकिन खास और आम को महंगाई के संत्रास से भी निकालना आवश्यक है।