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राजनीति कभी व्यापक हित नहीं देखती, पंजाब की चाह पंजाब यूनिवर्सिटी के जरिये हरियाणा और दूसरे प्रदेशों के युवाओं का भला करने की नहीं हो सकती। उसे इसका अंदेशा है कि वह ऐसा करके चंडीगढ़ पर अपनी दावेदारी को खत्म कर लेगा।
आखिर पंजाब क्यों कर रहा ना
पंजाब एवं हरियाणा के बीच विभिन्न विवादित मुद्दों के बीच चंडीगढ़ स्थित पंजाब यूनिवर्सिटी में हरियाणा की हिस्सेदारी की मांग और पंजाब की ओर से इससे ना करने के बाद पैदा हुई स्थिति पर विचार आवश्यक है। निश्चित रूप से पंजाब को अपने निवासियों के हक का संरक्षण करने का अधिकार है, वहीं हरियाणा को भी अपनी जरूरतों को ध्यान में रखकर नई संभावनाओं के लिए काम करने की आवश्यकता है। लेकिन क्या दोनों राज्यों के बीच की रस्साकसी में एक शिक्षण संस्थान को पीसा जाना चाहिए? पंजाब यूनिवर्सिटी को हरियाणा की ओर से ग्रांट की पेशकश की गई है, इसके बदले में वह अपने तीन जिलों यमुनानगर, पंचकूला और अंबाला के कॉलेजों को पीयू से संबद्धता की मांग कर रहा है। हालांकि पंजाब ने इससे सिरे से इनकार कर दिया है।
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दो दौर की बातचीत का नतीजा शून्य
पंजाब के राज्यपाल एवं चंडीगढ़ के प्रशासक की अध्यक्षता में दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों के बीच दो दौर की वार्ता हो चुकी है। पहली बार जब दोनों राज्यों के मुख्यमंत्री टेबल पर आए तो पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान की ओर से इसके संकेत दिए गए थे कि पंजाब यूनिवर्सिटी को हरियाणा की ओर से फंड दिए जाने पर सरकार गौर करेगी। हालांकि मुख्यमंत्री के इन सकारात्मक बयानों का पंजाब में विरोधी राजनीतिक दलों के द्वारा प्रतिकार शुरू हो गया और इसे पंजाब का अहित समझा गया कि पंजाब यूनिवर्सिटी में हरियाणा को हिस्सेदारी दी जाए।
दूसरे दौर की वार्ता में पंजाब सीएम की साफ ना
दूसरे दौर की वार्ता के बाद तो मुख्यमंत्री पंजाब की ओर से साफ तौर पर कहा गया कि पंजाब के हित बिकाऊ नहीं हैं। उन्होंने यह भी कहा कि पंजाब यूनिवर्सिटी से प्रदेश का भावनात्मक नाता है, इसके लिए हरियाणा की हिस्सेदारी की कोई जरूरत नहीं है। उन्होंने पूरी कवायद को हरियाणा की बैकडोर एंट्री की संज्ञा भी दी है।
एसवाईएल के पानी को लेकर भी ऐसा रूख
गौरतलब है कि एसवाईएल पानी के मुद्दे पर भी पंजाब का यही रूख है और वह सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की पालना करने से भी साफ इनकार कर रहा है। पंजाब की हठ वास्तविक कारणों से ज्यादा राजनीतिक लगती है, इसके आरोप हरियाणा के राजनीतिक एवं किसान लगा रहे हैं। पंजाब के मुख्यमंत्री ने बीते समय में हरियाणा के मुख्यमंत्री के साथ पानी के मुद्दे पर बात की है, हालांकि मुख्यमंत्री भगवंत मान ने पानी देने के बारे में बात करने के बजाय पूरा जोर इस पर लगाया कि हरियाणा के पास बहुत मात्रा में पानी है और उसके पास इसके क्या-क्या सोर्स हैं। हरियाणा के राजनीतिकों के अनुसार पंजाब केे रूख से यह साफ जाहिर होता है कि उसकी मंशा पानी की उपलब्धता होकर भी नहीं देने की है। ऐसे में हरियाणा के किसानों के खेत प्यासे हैं वहीं जनता को भी उचित मात्रा में पानी नहीं मिल रहा। सवाल यह है कि क्या वास्तव में पंजाब के हित इतने संकट में हैं कि राज्य एवं देशहित को नकार कर राज्य में सत्ताधारी दल एवं अन्य विपक्षी राजनीतिक पार्टियां सिर्फ अपने फायदे की सोच रहे हैं। पंजाब यूनिवर्सिटी को पंजाब सरकार की ओर से 40 फीसदी फंड देय होता है, 60 फीसदी हिस्सा चंडीगढ़ यानी केंद्र सरकार प्रदान करती है।
पंजाब ने नहीं दिया 40 फीसदी हिस्सा
हालांकि ऐसे तथ्य हैं कि पंजाब की ओर से कभी पूरा फंड यूनिवर्सिटी को प्रदान नहीं किया गया है, 7 से 16 फीसदी की ग्रांट ही पंजाब सरकार की ओर से यूनिवर्सिटी को दी जा रही है। अगर पंजाब का पंजाब यूनिवर्सिटी से इतना ही भावनात्मक नाता है तो उसे यूनिवर्सिटी की जरूरतों को पूरा करने के लिए क्यों नहीं आगे आना चाहिए। पंजाब यूनिवर्सिटी में फंड की किल्लत से नए छात्रावास नहीं बन रहे, रिसर्च एवं अन्य कार्यों के लिए पर्याप्त पैसा उपलब्ध नहीं हो पा रहा।
बैठक के दौरान पंजाब यूनिवर्सिटी की वाइस चांसलर प्रो. रेनू विग ने जब इसका डेटा दिया कि पंजाब की ओर से बीते दो दशक से 40 फीसदी की ग्रांट पीयू को नहीं दी गई है तो मुख्यमंत्री भगवंत मान की ओर से कहा गया कि पूरी ग्रांट नहीं मिलने का मतलब यह नहीं है कि हरियाणा के कॉलेज पीयू से संबद्ध कर लिए जाएं। उन्होंने यह भी कहा कि पीयू के लिए हरियाणा के फंड की जरूरत नहीं। आखिर इस प्रकार के बयान क्या परिलक्षित करते हैं, एक समय था जब राजनीतिक दूरगामी सोच के साथ व्यापक हित में सोचते और निर्णय लेते थे, लेकिन आजकल के नेताओं की सोच अपनी पार्टी की विचारधारा और उसके हितों से ऊपर नहीं उठ पा रही।
आखिर हरियाणा ने क्यों की थी ऐसी गलती
हरियाणा सरकार की ओर से अब इतने वर्षों बाद पंजाब यूनिवर्सिटी की सुध लेने पर भी सवाल उठना स्वाभाविक है। साल 1970 में तत्कालीन मुख्यमंत्री बंसीलाल ने जब पंजाब यूनिवर्सिटी को ग्रांट दिए जाने से हाथ पीछे खींचे थे, तो क्या यह उनकी बहुत बड़ी भूल नहीं थी। अब हरियाणा के उपमुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला ने खुद इस बात को स्वीकार किया है कि ऐसा करना गलत था।
तो किसके भरोसे छोड़ा था पीयू को हरियाणा ने
पंजाब यूनिवर्सिटी से अपनी संबद्धता को खत्म कर लेने के बाद हरियाणा की ओर से अपने यहां विश्वविद्यालयों को सक्षम बनाने पर जोर दिया गया लेकिन इस दौरान पंजाब यूनिवर्सिटी को जिसके लिए पंजाब पुनर्गठन एक्ट 1966 की धारा 72 की उपधारा (4) के अनुसार पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश एवं चंडीगढ़ के हिस्से क्रमवार 20:20:20:40 के अनुपात में फंड अदा करना था, उसमें से अपनी हिस्सेदारी खत्म करके पूरा भार पंजाब एवं चंडीगढ़ पर डाल दिया गया। अगर हरियाणा सरकार उसी समय से अपनी संबद्धता पंजाब यूनिवर्सिटी के साथ रखती और अपने यहां के विश्वविद्यालयों को सक्षम बनाने पर जोर देती तो क्या नुकसान होता।
हरियाणा के हितों को नुकसान पहुंचाया तत्कालीन मुख्यमंत्री ने
पंजाब यूनिवर्सिटी में इस समय हरियाणा के विद्यार्थियों की भी बड़ी तादाद है, उस समय की सरकार ने ऐसा कदम उठाकर हरियाणा के हितों को नुकसान पहुंचाया था। उस समय हरियाणा ने सीनेट से भी अपना हिस्सा निकाल लिया था। जब राज्य एसवाईएल, राजधानी, विधानसभा में ज्यादा जगह, हिंदी भाषी जिलों को लेकर पंजाब से संघर्ष कर रहा है, तब आखिर तत्कालीन मुख्यमंत्री दिवंगत बंसी लाल ने पंजाब यूनिवर्सिटी से हरियाणा का हिस्सा खत्म करके हरियाणा के हितों को ही ठेस पहुंचाई थी, उस समय न जाने ऐसी कौनसी अड़चन रही होगी कि ऐसा फैसला लिया गया, लेकिन यह सच है कि हरियाणा को ऐसा नहीं करना चाहिए था।
तय है, पंजाब नहीं करेगा अपने हितों से समझौता
यह उसी समय तय था कि पंजाब अपने हितों से कभी समझौता नहीं करेगा लेकिन ऐसे में हरियाणा की ओर से अपने हितों से समझौता कर लिया गया। जाहिर है, वास्तव में नए दौर में नई जरूरतों और संभावनाओं को देखते हुए पंजाब को इस बारे में खुले दिल से विचार करना चाहिए। बेशक इसकी संभावना बहुत कम नजर आती है, लेकिन पंजाब यूनिवर्सिटी के बेहतर भविष्य और यहां पढ़ रहे पूरे देश के युवाओं के करियर को ध्यान में रखते हुए कोई बीच का रास्ता तो निकाला ही जाना चाहिए।