राष्ट्रीय

पंजाब के प्रदर्शनकारी किसान क्या सच में इस मसले के समाधान को राजी हैं ?

आंदोलन के नाम पर परेशानी खड़ी करना ही एकमात्र मकसद क्यों रह गया है, क्या इसी तरह से समाधान संभव है, इससे पहले साल 2020 में भी इसी प्रकार से गतिरोध कायम किया गया था

16 फ़रवरी, 2024 01:48 PM
किसानों की दिल्ली जाकर ही प्रदर्शन करने की जिद भी सवालों के घेरे में है। फोटो सोशल मीडिया

चंडीगढ़ : पंजाब के प्रदर्शनकारी किसानों और केंद्र सरकार के बीच दूसरे दौर की वार्ता का भी विफल होना यह बताता है कि इस मसले के समाधान के लिए किसान संगठन राजी नहीं हैं। बेशक, कुछ मुद्दों पर सहमति बनने की बात सामने आई है, लेकिन इसके बावजूद एक तीसरे दौर की बैठक रविवार को फिर होना निश्चित किया गया है। यानी वार्ताओं का दौर जारी रहेगा वहीं आम जनता को इस तथाकथित आंदोलन से हो रही परेशानी को यूं ही झेलते रहना होगा।

 

यह अचरज वाली बात है कि इस गतिरोध के बावजूद किसान संगठनों ने शुक्रवार को भारत बंद का आह्वान करते हुए सडक़ों, हाईवेज को जाम कर दिया और रेलवे ट्रेक ठप कर दिए। दुकान-बाजार बंद करवा दिए और पेट्रोल पंपों पर पेट्रोल-डीजल की बिक्री बंद करवा दी। यह तब है, जब पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने बातचीत की जरूरत तो बताई थी वहीं अवरोध खड़ा न करने को भी कहा था। क्या यह माना जाए कि किसान संगठन कानून और व्यवस्था से इतर हो गए हैं और उन पर कोई नियम और फैसला लागू नहीं हो रहा। यह कितना विचित्र है कि अपनी मांगों को पूरा कराने के लिए किसान संगठन जनसामान्य के लिए मुसीबत पैदा कर रहे हैं।

 

गौरतलब बात यह भी है कि किसान संगठनों के नेताओं की ओर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संबंध में जैसी बातें कही गई हैं, वे देश के प्रधानमंत्री के प्रति किसान नेताओं की नफरत को प्रदर्शित कर रही हैं। क्या एक प्रधानमंत्री जोकि अपने राजनीतिक दल का नेता भी है, उसे जन आकांक्षाओं के अनुसार काम करने का हक नहीं है। अयोध्या में भगवान राम का मंदिर बनना हिंदू समाज ही नहीं अपितु प्रत्येक धर्म और समाज के लोगों के लिए स्वीकार्य होना चाहिए, क्योंकि इस धर्म संस्थान के जरिये एक बहुसंख्या को न्याय की प्राप्ति हुई है। सिख समाज ने भी तो सदियों तक ऐसे हमलों को झेला है, जिसमें समाज के गुरुओं पर अत्याचार हुए और उन्हें बलिदान कर दिया गया।

 

अयोध्या में भगवान राम के मंदिर के उद्घाटन के बाद ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रसिद्धि का ग्राफ बढ़ा हो, ऐसा नहीं है। वे अपनी नीतियों और कार्यक्रमों के माध्यम से देश को नई बुलंदियों पर लेकर आए हैं और तमाम झंझावातों से जुझते हुए उन्होंने देश को विकास के रास्ते पर आगे बढ़ाया है। अगर वे लोकप्रियता के शिखर पर हैं तो किसान संगठन राजनीतिक दांवपेच खेलते हुए तथाकथित आंदोलन की आड़ में उनकी इस प्रसिद्धि को खत्म करने का षड्यंत्र रचेंगे? यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण एवं आलोचना का विषय है कि किसान नेता ऐसी सोच रख रहे हैं। किसान आंदोलन की टाइमिंग और उन मांगों पर लगातार सवाल उठ रहे हैं जोकि उठाई जा रही हैं।

 

लग रहा है, जैसे महज विरोध के लिए विरोध हो रहा है। क्योंकि लोग चाह कर भी समझना और स्वीकार करना नहीं चाहते। वे जिद बांध कर बैठ गए हैं कि उन्होंने जो सोचा है, वही चाहिए। इसके लिए फिर तमाम कायदे-कानूनों को अगर अंगूठा दिखाया जाए तो दिखाओ। इसका सबूत इससे भी मिलता है कि केंद्र सरकार से जब वार्ता का दौर जारी है, तब लगभग कुंठित होकर और ज्यादा दबाव बनाने के लिए भारत बंद करवा दिया गया। एक दिन के भारत बंद से जो हजारों करोड़ का नुकसान राज्य एवं देश को होता है, उसका अंदाजा क्या कोई आंदोलनकारी संगठन लगा सकता है।

 

सवाल यह भी है कि किसान संगठनों की ओर से जैसी मांगें की जा रही हैं, क्या वे किसी भी राजनीतिक दल की सरकार की ओर से पूरी किया जाना संभव है। यूपीए के कार्यकाल में भारत रत्न कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन ने एमएसपी देने की सिफारिश की थी, लेकिन क्या वास्तव में कोई भी सरकार एमएसपी की गारंटी दे सकती है। अगर इस मांग को लागू करना इतना ही आसान होता तो कांग्रेस सरकार ने इसे क्यों नहीं लागू किया जबकि अब राहुल गांधी को राजनीतिक फायदे की नजर से यह क्यों कहना पड़ रहा है कि कांग्रेस की सरकार आने पर एमएसपी पर कानून बनाया जाएगा।

 

वास्तव में कुछ ऐसे मुद्दे हैं, जिनका समाधान शायद ही संभव है। राजनीतिक फायदे के लिए जनहितों की बलि नहीं चढ़ाई जा सकती। खेती-किसानी में बिचौलिया सिस्टम बड़ी परेशानी है, लेकिन इस सिस्टम को तोडऩे का साहस कौन कर सकता है। रोजगार और व्यवसाय करने का अधिकार सभी को है। किसानी के कल्याण के लिए सभी को प्रतिबद्ध होकर काम करने की जरूरत है, महज सरकारी कवच लेकर बैठने से खेती का सर्वकल्याण संभव नहीं है।

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