राष्ट्रीय

जाट आरक्षण आंदोलन में केस वापसी क्यों हो? हरियाणा सरकार निभाए राजधर्म

राज्य सरकार की ओर से उपद्रव के दौरान दर्ज किए गए केस अब लिए जा रहे वापस, हाईकोर्ट की स्टे बनी अड़चन

07 दिसंबर, 2022 02:19 PM
जाट आरक्षण आंदोलन हरियाणा की छवि पर काला धब्बा था। फोटो सहयोग इंटरनेट मीडिया

jaat arakshan : चंडीगढ़ : हरियाणा में साल 2016 में जाट आरक्षण आंदोलन (jat reservation agitation in haryana) के दौरान तीन दिनों के अंदर जो तबाही मची थी, उसके अब बेशक भर चुके हैं, लेकिन उनके निशान अभी बाकी हैं। उन जख्मों का दर्द भी अब तक वैसा ही है। शहर, कस्बों में एक समाज विशेष की दुकानें, घर, कारोबार को जिस प्रकार से तबाह किया गया, वह गीता उपदेश की इस स्थली के लिए महापाप था। इस उपद्रव के दौरान अनेक केस ऐसे भी दर्ज हुए हैं, जिनमें आरोपी महज दूसरों का साथ निभाने के लिए सड़क पर उतर आए। शुरुआत में ऐसे अनेक केस वापस लिए गए हैं, हालांकि काफी मामले अभी भी लंबित हैं। सरकार की ओर से ऐसे केस वापस लेने की प्रक्रिया स्वीकार की जा सकती है लेकिन गंभीर मामलों के आरोपियों पर कार्रवाई जरूरी है, यह सवाल भी अधूरा है कि आखिर किसके कहने पर इस उपद्रव की आग भड़काई गई। क्या कभी वास्तविक आरोपी सामने आ पाएंगे और क्या सरकार उन लोगों की पीड़ा का भी आकलन कर पाई है, जिन्हाेंने इस कथित आंदोलन में अपनी सम्पत्ति को खोया, परिवार के सदस्य खोए?

 

छह साल बाद सब शांत हो गया- क्यों?

 

हालांकि अब राजनीतिक मजबूरी में प्रदेश की  गठबंधन सरकार अगर इस तबाही के आरोपियों पर दर्ज मामले वापस लेने की तैयारी में है तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है। यह न्यायसंगत नजर नहीं आता कि दोषी इतने बड़े कांड करके बच जाएं। उस समय हिंसक आंदोलन की आड़ में सोनीपत के मुरथल में हाईवे से गाड़ियों में गुजर रही महिलाओं के साथ रेप की भी अपुष्ट खबरें आई थी, लेकिन पुलिस ने किसी के द्वारा अपनी 'आबरू बचाने' की आड़ लेकर उन मामलों की जांच ही खत्म करवा दी। ऐसा भी सामने आया था कि शोरूमों से नए बाइक और स्कूटरों को भरकर ट्रैक्टर-ट्रॉलियां गांवों की तरफ दौड़ गई थी। गाड़ियों के शोरूम फूंक दिए थे, मंत्री का घर जला डाला था, गरीब का ढाबा नहीं छोड़ा था, बस अड्डों में सरकारी बसें धू-धू कर जल रही थीं, और सड़कों पर मौत उपद्रवियों के रूप में अट्टहास करती घूम रही थी, लेकिन अब छह वर्ष बाद सब शांत हो गया, क्यों?
 

 

किसान आंदोलन में फिर दिखी थी वही गरमी


किसान आंदोलन के दौरान भी गांव-देहात और शहरों में गठबंधन सरकार के मंत्रियों, विधायकों, सांसदों, खुद मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री का भी तीखा विरोध हुआ, अनेक जगह झड़पें हुईं। किसान आंदोलनकारियों ने कहीं भी शांति से सरकार को अपने कार्यक्रम नहीं करने दिए। इस दौरान पुलिस ने जिनके खिलाफ केस दर्ज किए, उन्हें माफ कर दिया गया। सार्वजनिक सम्पत्ति को क्षति पहुंचाई गई। सरकार ने खुद एक सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाने की एवज में सख्त कानून बनाया है। इसके बावजूद जब-तब किसान आंदोलनकारी सड़कों को रोक कर जनजीवन प्रभावित करते हैं, तो सरकार के साथ उनकी बैठक का एजेंडा यही होता है कि दर्ज केस खारिज किए जाएं। और राजनीतिक मजबूरी देखिए कि सरकार उन केसों को खारिज कर भी देती है।


 
सरकार ने माना है, खारिज कर दिए गए केस


राज्य सरकार के अनेक शीर्ष पदाधिकारियों ने बीते दिनों स्वीकार किया है कि ऐसे अनेक केस खारिज किए जा चुके हैं और कुछ हाईकोर्ट में सुनवाई की वजह से लंबित हैं, जिन्हें भी जल्द खारिज कराया जाएगा। अब गौरतलब यह है कि अगर राज्य का गरीब और दमित समाज अगर ऐसे किसी आंदोलन में कानून को अपने हाथ में लेता है तो पुलिस, सरकार और कानून उसे उसकी अंतिम सांस तक सजा दिलाने को उद्धत हो जाता है, लेकिन समाज का उच्च और प्रभावशाली वर्ग अगर कानून की धज्जियां उड़ाता है तो उसके मामलों को रफा-दफा करने में सरकार प्रयत्नशील हो जाती है।


कानून-व्यवस्था का मखौल क्यों उड़ रहा 


बेशक, किसान आंदोलन के उग्र होने की वजह समझ में आती है, लेकिन फिर भी कानून और व्यवस्था का मखौल बनाने की किसी को भी इजाजत नहीं दी जा सकती। वहीं जाट आरक्षण आंदोलन में जो हुआ, वह किसी भी तरह से तुलना के योग्य नहीं है। हरियाणा में ऐसा ही कांड डेरा मुखी को सजा सुनाए जाने के बाद भी सामने आया था। अगर जाट आरक्षण आंदोलन में उपद्रवियों पर दर्ज केस वापस लिए जाएंगे तो फिर ऐसी ही मांग डेरा मुखी के मामले भी उठाई जा सकती है। क्या सरकार इसे स्वीकार करेगी?


 
20 हजार करोड़ का नुकसान और सैकड़ों मौतें


 
जाट आरक्षण का स्याह पक्ष यह है कि इस दौरान प्रदेश में सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 32 लोगों की मौत हुई थी, हालांकि वास्तविक आंकड़ा कुछ और भी हो सकता है। उस समय राज्य में 20 हजार करोड़ रुपये की सरकारी, सार्वजनिक और निजी सम्पत्ति का नुकसान हुआ था। हालांकि यह आकलन औद्योगिक संगठनों की ओर से किया गया था, सरकार का आकलन तो महज 700 करोड़ रुपये का ही था। इस उपद्रव जिसे आंदोलन बताया गया कि सीबीआई से जांच कराई गई, जिसका कोई सार नहीं निकल पाया। साल 2018 में इसी उपद्रव के दौरान एक केस को वापस लेने का मामला जब पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट में पहुंचा तो अदालत ने सरकार के फैसले पर स्टे लगा दिया। इस समय 400 से अधिक ऐसे मामले हैं, जोकि लंबित हैं। अदालत में स्टे लगने के बाद अब तमाम अन्य केस भी लंबित हैं।


 
सरकार को दिखानी होगी अति गंभीरता 


वास्तव में राज्य सरकार को इस मामले पर अति गंभीरता से काम लेना होगा। सामान्य अपराध और जघन्य अपराध में अंतर करके देखना होगा। गृहमंत्री अनिल विज और पुलिस अधिकारियों के बीच इन मामलों को वापस लेने को हुई बैठक भी बेनतीजा रही है तो इसकी वजह हाईकोर्ट की स्टे होना है। सरकार को चाहिए कि मामूली तोड़फोड़, रास्ते जाम करने, पुलिस पर पथराव, सरकारी कार्य में बाधा पहुंचाने जैसे मामलों को वापस लिया जाए, लेकिन सम्पत्ति को जलाने, किसी की जान के लिए संकट पैदा करने, हत्या, साजिश रचने जैसे मामलों में आरोपियों को सजा दिलवाए।


 
उपद्रव से नष्ट हुई थी राज्य की छवि

यकीनन यह समय सरकार के लिए बड़े सधे कदमों से चलने का है, राजनीतिक फायदे के लिए किसी वर्ग को फायदा पहुंचा कर एक बड़े वर्ग की भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचाई जा सकती। सरकारी फाइलों में इस उपद्रव के लिए जो लिखा गया है, उसके एकदम उलट स्थिति जमीन पर नजर आ सकती है। गृहमंत्री विज का पुलिस अधिकारियों को यह निर्देश उपयुक्त है कि सभी मामलों का डाटा जमा करें ताकि उसके हिसाब से निर्णय लिया जा सके। जाट आरक्षण हरियाणा की छवि को नष्ट करने वाला उपद्रव था, उसके दोषियों पर कार्रवाई होना न्याय की पुकार है, गठबंधन सरकार को अपने राजधर्म को निभाना ही होगा।

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