sharad pawar resign: राजनीतिक दल को अगर पारिवारिक सम्पत्ति की भांति आगे बढ़ाया जाएगा तो संभव है इसी प्रकार के घटनाक्रम बनेंगे, जैसा कि राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में हो रहा है। पार्टी का जन्म उस समय हुआ था, जब इसके सर्वेसर्वा शरद पवार जिन्होंने अब अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया है, कांग्रेस से वैचारिक मतभेद के बाद अलग राह पर निकल पड़े थे। महाराष्ट्र की जनता ने शरद पवार और उनकी बनाई राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को वही सम्मान दिया जोकि वाजिब था। शरद पवार कर्मचारी और किसान संघों को पल्लवित, पोषित करते हुए उन्हें उनके अधिकार दिलाने के लिए लंबे समय से संघर्ष करते आ रहे हैं। महाराष्ट्र में शरद पवार को राजनीतिक डगर अलग अपनाने और उनको अपना वर्चस्व कायम करने में इन्हीं संगठनों ने मदद की।
तो पार्टी पर पकड़ हो रही कमजोर
हालांकि बीते वर्षों में जिस प्रकार राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी केंद्र से राज्य की सत्ता में प्रतिभागी रही है, उसके बाद क्या यह जरूरी नहीं हो जाता था कि पार्टी अपने आप को विस्तार दे और वह एक नेता के बूते नहीं अपितु पहली-दूसरी और तीसरी पांत के नेताओं को तैयार करे। 82 वसंत देख चुके शरद पवार के सम्मुख इस समय पार्टी पर पावर बनाए रखना संभव है, मुश्किल हो गया है, जिसके बाद वे पार्टी नेताओं को अपने इस्तीफे की बात कहकर चौंका देते हैं। क्या वास्तव में उन्हें यह चाहिए था कि वह इतने अचंभित करने वाले अंदाज में पार्टी को आगे बढ़ाने के लिए किसी नए नेतृत्व की खोज करने को कहते।
क्या पवार सच में खेल चुके पारी
शरद पवार भारतीय राजनीति के महारथी हैं। उन्होंने हर दौर को देखा और उसके मुताबिक अपने राजनीतिक वर्चस्व को साबित किया है। पवार की प्रासंगिकता न केवल महाराष्ट्र की राजनीति में है, अपितु राष्ट्रीय राजनीति में भी है। अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव में विपक्ष को एकजुट करने का मिशन पवार ने अपने हाथ में लिया था, हालांकि कांग्रेस समेत दूसरे दलों ने इसमें कोई इच्छा नहीं दिखाई। पवार उस महार विकास अघाड़ी के रचयिता थे, जिसने राज्य में शिवसेना के नेतृत्व में सरकार का गठन किया था।
हालांकि उस गठबंधन सरकार को बनाए रखने में पवार भी विफल रहे। महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव के बाद पवार के भतीजे अजीत पवार ने भाजपा नीत सरकार में शामिल होकर रातों-रात शपथ भी ग्रहण की थी, लेकिन परिवार के दबाव में वे लौट गए। क्या यह माना जा सकता है कि शरद पवार अब अजीत पवार से पार्टी को बचाने के लिए यह प्रहसन रच रहे हैं कि इस्तीफा देने की बात भी अपनी आत्मकथा के विमोचन अवसर पर जाहिर करते हैं। जबकि ऐसा कुछ होगा, इसकी जानकारी उनकी पत्नी एवं सांसद बेटी सुप्रिया सुले को संभव है पहले से थी। क्योंकि उस सभा में प्रत्येक चौंक गया था, सिवाय इन दोनों के।
इसके बाद वह सब हुआ जोकि एक समय कांग्रेस में सोनिया गांधी को लेकर हो चुका है। जी-23 के नेताओं ने बस इतना कहा था कि स्थाई अध्यक्ष के लिए चुनाव कराए जाने चाहिएं और पार्टी में गांधी परिवार के वफादारों ने ऐसी मांग करने वाले नेताओं को गद्दार तक की संज्ञा दे दी। राकांपा में भी कहा गया कि शरद पवार अपने पद पर बने रहें, वहीं एक कार्यकारी अध्यक्ष चुन लिया जाए।
कौन पिता नहीं चाहेगा पुत्र-पुत्री को आगे बढ़ाना
हालांकि शरद पवार भी एक पिता हैं और अपने पुत्र-पुत्री के राजनीतिक भविष्य को संवारने की कौन पिता चेष्टा नहीं करेगा। ऐसा गांधी परिवार कर चुका है, सपा में यह हो चुका है। राजद में ऐसा हुआ है, शिअद इसकी मिसाल है। इनेलो में भी हुआ और यह इस पार्टी के दोफाड़ होने की वजह भी बना। इसी प्रकार दक्षिण के राजनीतिक दलों के साथ हो रहा है। तृणमूल कांग्रेस में इसी प्रकार के हालात बने हुए हैं।
बेशक, कंपनी को अगर कोई स्थापित करता है तो उस पर स्वामित्व उस परिवार का होता है, लेकिन क्या राजनीतिक दल में भी एक कंपनी के नियम लागू होने चाहिएं? निश्चित रूप से ऐसा नहीं होना चाहिए। क्योंकि जब यह होगा तो पार्टी के अंदर नया नेतृत्व पैदा ही नहीं होगा। एक परिवार, एक व्यक्ति ही उस पर अपना वर्चस्व कायम रखेगा और उसकी नीतियों, कार्यक्रमों को अपने मुताबिक संचालित करेगा। होना तो यह चाहिए कि पार्टी के अंदर व्यापक लोकतंत्र हो और सभी को आगे बढऩे का मौका मिले। हालांकि पार्टी के सर्वेसर्वा का अपने परिजनों के प्रति मोह खत्म होगा, इसका ख्याल करना बेमानी है।
राकांपा के समक्ष नेतृत्व का संकट इसी वजह से है। शरद पवार की ओर से पार्टी को अचंभित करना सोची समझी रणनीति हो सकती है। संभव है, वे अपनी बेटी का नाम आगे बढ़वाना चाहें। हालांकि इसमें कोई बुराई नजर नहीं आती, लेकिन सवाल यही है कि इस प्रकार पार्टी को आगे बढ़ाना क्या वास्तव में उसके भविष्य के लिए उचित है। इससे पार्टी में पैदा होने वाले असंतोष को कैसे रोका जाएगा, क्या राकांपा सही राह पर है?