विजयदशमी के पर्व पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने जिस प्रकार से एक महिला को अपने समारोह में आमंत्रित करके उनके विचारों को प्रसारित करने का अवसर दिया है, वह बेहद प्रशंसनीय है। गौरतलब यह है कि वर्ष 1925 में दशहरे के दिन संघ की स्थापना के बाद यह पहला अवसर है, जब एक महिला को मंच प्रदान किया गया। पर्वतारोही संतोष यादव को इस मंच पर लाकर संघ ने यह संदेश दिया है कि वह नई सोच के साथ आगे बढ़ रहा है।
हालांकि यह सवाल स्वाभाविक है कि आखिर देश की केंद्रीय सत्ता पर काबिज भाजपा का प्रेरणा स्त्रोत संगठन अभी तक महिलाओं को इस अधिकार से वंचित क्यों करता रहा। जबकि भाजपा राजनीति में महिला अधिकारों की पैरोकार हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ही महिला सशक्तीकरण को आगे बढ़ाते हुए बेटी पढ़ाओ-बेटी बचाओ का नारा दिया था। संघ की ऐसी क्या मजबूरी रही, यह उसे स्पष्ट करना चाहिए हालांकि अगर 97 साल बाद ही सही, इस त्रुटि को अगर ठीक कर लिया गया है तो यह उचित ही है।
संघ ने 1936 में अपनी महिला समिति राष्ट्र सेविका समिति का गठन कर लिया था, लेकिन अभी तक किसी महिला को विजय दशमी पर होने वाले कार्यक्रम या फिर किसी अन्य प्रमुख अवसर पर नहीं बुलाया गया। पर्वतारोही संतोष यादव पद्मश्री हैं और देश-विदेश की विभिन्न चोटियों पर अपनी विजय पताका फहरा चुकी हैं। जाहिर है, यह भी महिला अधिकारों का पहाड़ फतेह करने जैसा ही है। तभी तो उन्होंने कहा भी कि आज किस्मत उन्हें इस सर्वोच्च मंच पर ले आई है।
संघ विरोधियों, विपक्षियों के निशाने पर हमेशा से रहा है। आजकल देश में आतंकी गतिविधियों के संचालक संगठनों पर अगर कार्रवाई होती है, तो विरोधी संघ का नाम भी आगे कर देते हैं। लेकिन संघ भारतीय समाज की वह इकाई है, जोकि सांस्कृतिक और वैचारिक शुद्धता की बात करता है। संघ राष्ट्रवाद और सनातन संस्कृति को कायम रखने की बात करता है। यह विचारधारा उन संगठनों और लोगों को पसंद नहीं आती, जोकि देश के उसी स्वरूप को देखने के कायल हैं, जोकि किसी दूसरे देश के लोगों की विचारधारा और उनकी सोच पर केंद्रित था। आज का वक्त पुरातन सोच और दूषित मानसिकता से बाहर निकल कर आने का है।
जाहिर है, भारतीय समाज में ऐसी तमाम बातें हैं, जिनमें सुधार की अपार गुंजाइश है। धर्म का प्रपंच हर जगह दिखता है, लेकिन जातिवाद का डंक अब भी अंदर ही अंदर कायम है और दर्द दे रहा है। यही वजह है कि संघ प्रमुख मोहन भागवत मंदिर, पानी और श्मशान एक होने की बात कर रहे हैं। उन्होंने समाज में एकता की अपील की है, बेशक यह विषय बेहद पेचीदा है। क्योंकि जो लोग ऐसा नहीं कर रहे, उन्हें भलीभांति मालूम है कि ऐसा क्यों नहीं कर रहे। बावजूद इसके उन्हें जातिवाद के नाम पर अपना डंक चलाना संतोष देता है। वही लोग एक निम्न जाति के व्यक्ति को मंदिर जाने से रोकते हैं, घुड़चढ़ी चढऩे से टोकते हैं। संविधान निर्माता डॉ. अम्बेडकर की प्रतिमा को खंडित करते हैं। कुएं या नल पर जाने से रोकते हैं और आरक्षण हासिल करके अपने जीवन को नई दिशा देने की कोई युवा अगर कोशिश करता है तो उसका भी रास्ता रोकते हैं। जातिवाद का डंका चुनाव में टिकट देते वक्त बजता है और संसद में फिर सरकार के मुखिया जोर-शोर से यह बताते हैं कि किस प्रकार अजा समाज को उनका हक दिलाया जा रहा है। वास्तव में जातिवाद को बहुत पहले खत्म हो जाना चाहिए था, लेकिन उसे समाज ने जिंदा करके रखा है।
बावजूद इसके मोहन भागवत जैसे अहम व्यक्ति अगर ऐसी अपील समाज से करते हैं तो उसका प्रभाव सामने आना चाहिए। उन्होंने कहा है कि कौन घोड़ी चढ़ सकता है और कौन नहीं, इस तरह की बातें अब समाज से विदा हो जानी चाहिए। समाज में सभी के लिए मंदिर, पानी और श्मशान एक होने चाहिए। इसके लिए उन्होंने संघ के स्वयंसेवकों से प्रयास की अपील की है। उनका मानना है कि ऐसे प्रयास संघ के स्वयंसेवक करेंगे तो समाज में विषमता को दूर किया जा सकेगा। भागवत का यह भी मानना है कि जाति के आधार पर विभेद करना अधर्म है। यह धर्म के मूल से परे है।
उनका यह कहना सर्वथा उचित है कि हमें हर जिम्मेदारी सरकार पर ही डालने की बजाय खुद भी समाज के तौर पर जागरूक होना होगा। हम भाषा, संस्कृति और संस्कार को बचाने की बात करते हैं, लेकिन यह भी ध्यान रखना होगा कि उसके लिए अपनी ओर से क्या करते हैं। क्या हमने अपने घर की नेम प्लेट अपनी मातृभाषा में लिखी है। क्या हम निमंत्रण पत्र मातृभाषा में छपवाते हैं? हम बात करते हैं कि बच्चों को संस्कार मिलें, लेकिन हम उन्हें पढऩे इस लिहाज से भेजते हैं कि कुछ भी करो और ज्यादा कमाने की डिग्री लो। ऐसा सोचेंगे तो परिणाम भी वैसा ही होगा।
भागवत की इन बातों में जीवन की सच्चाई है कि जब हम यह सोचकर बच्चों को स्कूल भेजें कि उन्हें अच्छा नागरिक बनाना है तो वह बेहतर व्यक्ति और संस्कार युक्त बनेंगे। ऐसा नहीं करेंगे तो बच्चे पैसा कमाने की मशीन ही तो बनेंगे। सामाजिक कार्यक्रमों में और महात्माओं के द्वारा भी व्यक्तित्व का निर्माण होता है। सिर्फ स्कूल और कॉलेजों में ही लोग तैयार नहीं होते हैं। लोकमान्य तिलक गुरुकुल में नहीं पढ़े, महात्मा गांधी ने भी ऐसा नहीं किया था।
डॉ. हेडगेवार की शिक्षा अंग्रेजी स्कूल में थी, लेकिन इन महान लोगों पर इसका असर नहीं था। इन सभी को समाज और परिवार के संस्कारों के चलते आगे बढऩे का मौका मिला। संघ प्रमुख का रोजगार के संबंध में कहना कि सिर्फ सरकारी नौकरी करना ही रोजगार नहीं है, उचित है। आर्थिक उन्नति के लिए रोजगार की बात आती है और स्किल ट्रेनिंग हो रही है। हम सब लोग चाहते हैं कि हमारी अर्थव्यवस्था रोजगार उन्मुख हो और पर्यावरण फ्रेंडली हो। लेकिन इसके लिए हमें उपभोग त्यागना होगा। ऐसा तो नहीं है कि अपने वैभव को प्रकट करने के लिए लुटाते हैं। रोजगार का अर्थ सिर्फ सरकारी नौकरी नहीं है। उसमें भी लोग सोचते हैं कि सरकारी नौकरी हो और पास में ही हो। किसी भी समाज में 20 से 30 फीसदी नौकरियां ही होती हैं। अन्य लोगों को अपनी आजीविका के लिए कोई और उद्यम करना होता है। यदि हम लोग खुद रोजगार के सृजन के प्रयास नहीं करेंगे तो अकेले सरकार कितनी नौकरियां दे सकती है।
वास्तव में इन बातों पर गौर होना जरूरी है, आज का समाज ऐसी अंधी दौड़ लगा रहा है, जिसका कोई अंत नहीं है। अब जीवन गुजारा नहीं जा रहा है, अपितु इसे काटा जा रहा है। जैसे रेलवे स्टेशन पर कोई अपनी टे्रन का इंतजार करता हो। प्रश्न यह है कि भाई जाना कहां है? क्यों नहीं हम से हर कोई डट कर शांति से जीवन जीए और उन सभी विकारों, झंझटों और बुराइयों से बचे जोकि हमारे रास्ते की अड़चन बन गई हैं। बेशक, ऐसा जीवन मुश्किल है, लेकिन हम कुछ हद तक प्रयास कर सकते हैं। क्योंकि आखिर जीवन हमारा है, हम ही उसके मालिक हैं और हमें ही रहना चाहिए।