शंघाई सहयोग संगठन यानी एससीओ की बैठक में चीन और पाकिस्तान के प्रतिनिधियों की उपस्थिति और इस दौरान भारत सरकार का रूख जहां बदले दौर की कहानी कह रहा है, वहीं इन दोनों देशों को इसकी जरूरत का भी अहसास करा रहा है कि क्यों उन्हें अपने आप को बदलने की जरूरत है। भारतीय विदेश नीति इससे पहले नरम और काफी हद तक दूसरे देशों को खुश करने वाली रही है। हालांकि पहली बार यह देखने को मिल रहा है कि भारत अपने तेवर गर्म भी कर सकता है और इसका बखूबी संदेश दे सकता है कि क्षेत्र में शांति महज कहने से नहीं आएगी अपितु उसके लिए बाकी देशों (पाकिस्तान-चीन) को इसके लिए प्रतिबद्ध भी होना होगा।
यही वजह है कि चीन के विदेश मंत्री छिन कांग के साथ विदेश मंत्री एस जयशंकर ने द्विपक्षीय मुलाकात के दौरान यह बेहतर तरीके से समझाया कि जब तक सीमा विवाद को सुलझा नहीं लिया जाता, तब तक दोनों देशों में रिश्ते सामान्य नहीं हो सकते। आखिर गलवान में भारतीय सैनिकों पर चीनी सैनिकों के कायराना हमले, एलएसी पर जारी झड़पों, चीन के अरुणाचल प्रदेश पर दावा जताने के बाद भारत को चीन के साथ यह कहते हुए बैठक करनी चाहिए कि हमारे बीच सब सामान्य है?
चीन अपने व्यापारिक हितों को लेकर बेचैन है। भारत ने वहां निर्मित अनेक एप पर प्रतिबंध लगाया हुआ है वहीं चीनी सामान की भारत में बिक्री पर भी अंकुश लगा है। चीन के मतलबी रवैये के विरोध में भारत में स्वदेशी वस्तुओं के उपभोग के प्रति जागरण बढ़ा है और चीनी वस्तुओं की खरीद में कमी आई है। इससे चिंतित चीन भारत के साथ अपने व्यापारिक संबंधों को सुधारने की जुगत लगा रहा है, लेकिन सीमा विवाद को सुलझाना उसके एजेंडे में नहीं है। क्या यह भारत के लिए स्वीकार्य हो सकता है। वास्तव में चीन के साथ भारत का एकमात्र मसला सीमा विवाद रहा है।
अरुणाचल प्रदेश और तिब्बत को लेकर चीन के साथ भारत की पूर्व सरकारों का रवैया या तो टालमटोल का रहा है या फिर उन सरकारों ने देश के हितों की पैरवी मजबूती से नहीं की, जिसकी वजह से भारत के संबंध में यह राय बनती रही कि वह अपने हितों के प्रति संजीदा नहीं है और उसे दबाव में लाकर या फिर बहला कर स्थिति को जस का तस या फिर अपने मुताबिक किया जा सकता है।
हालांकि मौजूदा दौर में यह न चीन के लिए आसान रहा है और न ही पाकिस्तान के लिए। यह भी कितना उचित है कि रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने अपने चीनी समकक्ष शांगफू के सैन्य सहयोग के प्रस्ताव को मौके पर ही खारिज कर दिया था। उन्होंने चीनी रक्षा मंत्री से कहा था कि मौजूदा समझौतों को तोडऩे की चीन की कोशिशों की वजह से दोनों देशों के समूचे द्विपक्षीय रिश्तों पर असर पड़ा है। इसी बैठक के दौरान राजनाथ सिंह ने चीन रक्षा मंत्री से हाथ मिलाने से भी परहेज करते हुए बखूबी यह संदेश दिया था कि भारत की नाराजगी किस हद तक है और वह कितनी संजीदगी से इन मामलों को देख रहा है। आमतौर पर अंतर्राष्ट्रीय बैठकों के दौरान सामाजिक शिष्टाचार को अहमियत दी जाती है, लेकिन भारत सरकार के किसी ओहदेदार की ओर से पहली बार ऐसा रूख अचंभित करता है।
गौरतलब है कि यही रूख भारत सरकार ने पाकिस्तान के प्रति भी रखा है और उसका नतीजा सकारात्मक ही निकल रहा है। पाकिस्तान आजकल घोर आर्थिक बदहाली झेल रहा है, उसका भारत से कारोबार ठप हो गया है। जिन वस्तुओं का भारत को निर्यात करके उसकी गुजर-बसर होती थी आजकल उन वस्तुओं को भारत में स्वीकार ही नहीं किया जा रहा है। कश्मीर घाटी और देश में आतंकी वारदातों को बढ़ावा देने में सक्रिय पाकिस्तान के नादान विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो की शंघाई सहयोग संगठन की बैठक में मौजूदगी को भारत ने बिल्कुल भी गंभीरता से नहीं लिया है।
यह भी कितना दिलचस्प है कि भारतीय विदेश मंत्री की ओर से अपने पाकिस्तानी समकक्ष से हाथ तक नहीं मिलाया गया है, लेकिन पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल ऐसा करने का राग अलाप रहा है। भारतीय विदेश मंत्रालय ने इसकी पुष्टि नहीं की है। क्या बिलावल भुट्टो के संयुक्त राष्ट्र संघ की बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संबंध में दिए अनर्गल बयान को देश भूल सकता है। इससे भी बढक़र पाकिस्तान की ओर से आतंकवाद को पोषित करने की उसकी करतूत के बावजूद क्या पाक से रिश्ते सुधारने जैसी कोई कवायद हो सकती है। वास्तव में यह पाकिस्तान की जरूरत है और उसी को यह चाहिए कि पहले भारत विरोधी गतिविधियों को रोके।
एससीओ की बैठक में पाक की मौजूदगी बाकी देशों की तरह है, इसके लिए आमंत्रित करके भारत ने पाकिस्तान को मौका प्रदान किया है। चीन और पाक को अब भारत के संबंध में अपनी सोच और नीतियों को बदलना ही होगा, वरना उनकी जरूरत के मुताबिक भारत अपनी नीतियों में काई सुधर नहीं करेगा।